मेरे पीछे इसीलिये तो धोकर हाथ पड़ी है दुनिया मैंने किसी नुमाइश घर में सजने से इन्कार कर दिया। विनती करती, हुक्म चलाती रोती, फिर हँसती, फिर गाती; दुनिया मुझ भोले को छलने, क्या–क्या रूप बदल कर आती; मंदिर ने बस इसीलिये तो मेरी पूजा ठुकरा दी है, मैंने सिंहासन के हाथों पुजने से इन्कार कर दिया। चाहा मन की …
Read More »गाँव जाना चाहता हूँ: रामावतार त्यागी
ओ शहर की भीड़ अब मुझको क्षमा दो लौट कर मैं गाँव जाना चाहता हूँ। तू बहुत सुंदर बहुत मोहक कि अब तुझसे घृणा होने लगी है अनगिनत तन–सुख भरे हैं शक नहीं है किंतु मेरी आत्मा रोने लगी है गाँव की वह धूल जो भूली नहीं है फिर उसे माथे लगाना चाहता हूँ। कीमती पकवान मेवे सब यहाँ हैं …
Read More »गाली अगर न मिलती: रामावतार त्यागी
गाली अगर न मिलती तो फिर मुझको इतना नाम न मिलता, इस घायल महफिल में तुमको सुबह न मिलता शाम न मिलता। मैं तो अपने बचपन में ही इन महलों से रूठ गया, मैंने मन का हुक्म न टाला चाहे जितना टूट गया, रोटी से ज्यादा अपनी आजादी को सम्मान दिया, ऐसी बात नहीं है मुझको कोई घटिया काम न …
Read More »तुझे कैसे भूल जाऊं: दुष्यंत कुमार
अब उम्र की ढलान उतरते हुए मुझे आती है तेरी याद‚ तुझे कैसे भूल जाऊं। गहरा गये हैं खूब धुंधलके निगाह में गो राहरौ नहीं हैं कहीं‚ फिर भी राह में – लगते हैं चंद साए उभरते हुए मुझे आती है तेरी याद‚ तुझे कैसे भूल जाऊं। फैले हुए सवाल सा‚ सड़कों का जाल है‚ ये सड़क है उजाड़‚ या …
Read More »इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है: दुष्यंत कुमार
इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है, नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है। एक चिनगारी कही से ढूँढ लाओ दोस्तों, इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है। एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी, आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है। एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल …
Read More »सूना घर: दुष्यंत कुमार
सूने घर में किस तरह सहेजूँ मन को। पहले तो लगा कि अब आईं तुम, आकर अब हँसी की लहरें काँपी दीवारों पर खिड़कियाँ खुलीं अब लिये किसी आनन को। पर कोई आया गया न कोई बोला खुद मैंने ही घर का दरवाजा खोला आदतवश आवाजें दीं सूनेपन को। फिर घर की खामोशी भर आई मन में चूड़ियाँ खनकती नहीं …
Read More »मत कहो, आकाश में कोहरा घना है: दुष्यंत कुमार
मत कहो, आकाश में कोहरा घना है, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है। सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से, क्या करोगे सूर्य का क्या देखना है। इस सड़क पर इस कदर कीचड़ बिछी है, हर किसी का पाँँव घुटनों तक सना है। पक्ष औ’ प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं, बात इतनी है कि कोई पुल बना है। रक्त वर्षों …
Read More »कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये: दुष्यंत कुमार
कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये, कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये। यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है, चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये। न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे, ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये। ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही, …
Read More »हो गई है पीर पर्वत: दुष्यंत कुमार
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए। आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी, शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए। हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में, हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए। सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, मेरी कोशिश है कि ये …
Read More »एक सीढ़ी और: कुंवर बेचैन
एक सीढ़ी और चढ़ आया समय इस साल जाने छत कहाँ है। प्राण तो हैं प्राण जिनको देह–धनु से छूटना है, जिंदगी – उपवास जिसको शाम के क्षण टूटना है, हम समय के हाथ से छूटे हुए रूमाल, जाने छत कहाँ है। यह सुबह, यह शाम बुझते दीपकों की व्यस्त आदत और वे दिन–रात कोने से फटे जख्मी हुए ख़त …
Read More »