आज नहीं धन आशातीत कहीं से पाया‚ ना हीं बिछड़े साजन ने आ गले लगाया। शत्रु विजय कर नहीं प्रतिष्ठा का अधिकारी‚ कुछ भी तो उपलब्धि नहीं हो पाई भारी। साधारण सा दिन‚ विशेष कुछ बात नहीं थी‚ कोई जादू नहीं‚ नयन की घात नहीं थी। झलक नहीं पाते जो स्मृति के आभासों में‚ जिक्र नहीं होता है जिनका इतिहासों …
Read More »एक भी आँसू न कर बेकार: रामावतार त्यागी
एक भी आँसू न कर बेकार जाने कब समंदर मांगने आ जाए! पास प्यासे के कुआँ आता नहीं है यह कहावत है‚ अमरवाणी नहीं है और जिस के पास देने को न कुछ भी एक भी ऐसा यहाँ प्राणी नहीं है कर स्वयं हर गीत का श्रंगार जाने देवता को कौन सा भा जाय! चोट खाकर टूटते हैं सिर्फ दर्पण …
Read More »एक बूंद: अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
ज्यों निकल कर बादलों की गोद से थी अभी एक बूंद कुछ आगे बढ़ी सोचने फिर फिर यही मन में लगी आह क्यों घर छोड़ कर मैं यों बढ़ी। दैव मेरे भाग्य में है क्या बदा मैं बचूंगी या मिलूंगी धूल में या जलूंगी गिर अंगारे पर किसी चू पड़ूंगी या कमल के फूल में। बह गई उस काल कुछ …
Read More »जब नींद नहीं आती होगी: रामेश्वर शुक्ल अंचल
क्या तुम भी सुधि से थके प्राण ले–लेकर अकुलाती होगी, जब नींद नहीं आती होगी! दिन भर के कार्य भार से थक – जाता होगा जूही–सा तन, श्रम से कुम्हला जाता होगा मृदु कोकाबेली–सा आनन। लेकर तन–मन की श्रांति पड़ी – होगी जब शय्या पर चंचल, किस मर्म वेदना से क्रंदन करता होगा प्रति रोम विकल, अाँखो के अम्बर से …
Read More »दूर का सितारा: निदा फ़ाज़ली
मैं बरसों बाद अपने घर को तलाश करता हुआ अपने घर पहुंचा लेकिन मेरे घर में अब मेरा घर कहीं नहीं था अब मेरे भाई अजनबी औरतों के शौहर बन चुके थे मेरे घर में अब मेरी बहनें अनजान मर्दों के साथ मुझसे मिलने आती थीं अपनेअपने दायरों में तक्.सीम मेरे भाई बहन का प्यार अब सिर्फ तोहफों का लेनदेन …
Read More »चिट्ठी है किसी दुखी मन की: कुंवर बेचैन
बर्तन की यह उठका पटकी यह बात बात पर झल्लाना चिट्ठी है किसी दुखी मन की। यह थकी देह पर कर्मभार इसको खांसी उसको बुखार जितना वेतन उतना उधार नन्हें मुन्नों को गुस्से में हर बार मार कर पछताना चिट्ठी है किसी दुखी मन की। इतने धंधे यह क्षीणकाय ढोती ही रहती विवश हाय खुद ही उलझन खुद ही उपाय …
Read More »बाल-कविताओं का संग्रह: प्रभुदयाल श्रीवास्तव
यजमान कंजूस: प्रभुदयाल श्रीवास्तव बरफी ठूंस ठूंस कर खाई। सात बार रबड़ी मंगवाई। एक भगोना पिया रायता। बीस पुड़ी का लिया जयका। चार भटों का भरता खाया। दो पत्तल चाँवल मंगवाया। जल पीने पर आई डकार। छुआ पेट को बारंबार। बोले नहीं पिलाया जूस। यह यजमान बहुत कंजूस। ~ प्रभुदयाल श्रीवास्तव
Read More »कानाफूसी: राम विलास शर्मा
सुना आपने? चांद बहेलिया जाल रुपहला कंधे पर ले चावल की कनकी बिखेर कर बाट जोहता रहा रात भर, किंतु न आईं नीड़ छोड़ कर रंग बिरंगी किरण बयाएं! सुना आपने? सुना आपने? फाग खेलने क्ंवारी कन्याएं पलास की केशर घुले कटोरे कर मे लिये ताकती खड़ी रह गईं, ऋतुओं का सम्राट पहन कर पीले चीवर बौद्ध हो गया! सुना …
Read More »दीदी के धूल भरे पाँव: धर्मवीर भारती
दीदी के धूल भरे पाँव बरसों के बाद आज फिर यह मन लौटा है क्यों अपने गाँव; अगहन की कोहरीली भोर: हाय कहीं अब तक क्यों दूख दूख जाती है मन की कोर! एक लाख मोती, दो लाख जवाहर वाला, यह झिलमिल करता महानगर होते ही शाम कहाँ जाने बुझ जाता है – उग आता है मन में जाने कब …
Read More »दिवा स्वप्न: राम विलास शर्मा
वर्षा से धुल कर निखर उठा नीला नीला फिर हरे हरे खेतों पर छाया आसमान‚ उजली कुँआर की धूप अकेली पड़ी हार में‚ लौटे इस बेला सब अपने घर किसान। पागुर करती छाहीं में कुछ गंभीर अधखुली आँखों से बैठी गायें करती विचार‚ सूनेपन का मधु–गीत आम की डाली में‚ गाती जातीं भिन्न कर ममाखियाँँ लगातार। भर रहे मकाई ज्वार …
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