आज मैं भी नहीं अकेला हूं शाम है‚ दर्द है‚ उदासी है। एक खामोश सांझ–तारा है दूर छूटा हुआ किनारा है इन सबों से बड़ा सहारा है। एक धुंधली अथाह नदिया है और भटकी हुई दिशा सी है। नाव को मुक्त छोड़ देने में और पतवार तोड़ देने में एक अज्ञात मोड़ लेने में क्या अजब–सी‚ निराशा–सी‚ सुख–प्रद‚ एक आधारहीनता–सी …
Read More »देखो, टूट रहा है तारा: हरिवंश राय बच्चन
देखो, टूट रहा है तारा। नभ के सीमाहीन पटल पर एक चमकती रेखा चलकर लुप्त शून्य में होती-बुझता एक निशा का दीप दुलारा। देखो, टूट रहा है तारा। हुआ न उडुगन में क्रंदन भी, गिरे न आँसू के दो कण भी किसके उर में आह उठेगी होगा जब लघु अंत हमारा। देखो, टूट रहा है तारा। यह परवशता या निर्ममता …
Read More »धूप ने बुलाया: सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
बहुत दिनों बाद मुझे धूप ने बुलाया। ताते जल नहा, पहन श्वेत वसन आई खुले लॉन बैठ गई दमकती लुनाई सूरज खरगोश धवल गोद उछल आया। बहुत दिनों बाद मुझे धूप ने बुलाया। नभ के उद्यानछत्रतले मेघ टीला पड़ा हरा फूल कढ़ा मेजपोश पीला वृक्ष खुली पुस्तक हर पृष्ठ फड़फड़ाया बहुत दिनों बाद मुझे धूप ने बुलाया। पैरों में मखमल …
Read More »धन्यवाद: शिवमंगल सिंह ‘सुमन’
जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला उस उस राही का धन्यवाद। जीवन अस्थिर अनजाने ही हो जाता पथ पर मेल कहीं सीमित पगडग, लम्बी मंजिल तय कर लेना कुछ खेल नहीं दाएं बाएं सुख दुख चलते सम्मुख चलता पथ का प्रमाद जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला उस उस राही का धन्यवाद। सांसों पर अवलंबित काया जब चलते चलते चूर …
Read More »ढूंढते रह जाओगे: अरुण जैमिनी
चीजों में कुछ चीजें बातों में कुछ बातें वो होंगी जिन्हें कभी देख न पाओगे इक्कीसवीं सदी में ढूंढते रह जाओगे बच्चों में बचपन जवानी में यौवन शीशों में दरपन जीवन में सावन गाँव में अखाड़ा शहर में सिंघाड़ा टेबल की जगह पहाड़ा और पायजामें में नाड़ा ढूंढते रह जाओगे चूड़ी भरी कलाई शादी में शहनाई आंखों में पानी दादी …
Read More »देह के मस्तूल: चंद्रसेन विराट
अंजुरी–जल में प्रणय की‚ अंर्चना के फूल डूबे ये अमलतासी अंधेरे‚ और कचनारी उजेरे, आयु के ऋतुरंग में सब चाह के अनुकूल डूबे। स्पर्श के संवाद बोले‚ रक्त में तूफान घोले‚ कामना के ज्वार–जल में देह के मस्तूल डूबे। भावना से बुद्धि मोहित – हो गई पज्ञा तिरोहित‚ चेतना के तरु–शिखर डूबे‚ सु–संयम मूल डूबे। ∼ चंद्रसेन विराट
Read More »दरवाजे बंद मिले: नरेंद्र चंचल
बार–बार चिल्लाया सूरज का नाम जाली में बांध गई केसरिया शाम दर्द फूटना चाहा अनचाहे छंद मिले दरवाज़े बंद मिले। गंगाजल पीने से हो गया पवित्र यह सब मृगतृष्णा है‚ मृगतृष्णा मित्र नहीं टूटना चाहा शायद फिर गंध मिले दरवाज़े बंद मिले। धीरे से बोल गई गमले की नागफनी साथ रहे विषधर पर चंदन से नहीं बनी दर्द लूटना चाहा …
Read More »दफ्तर का बाबू: सुरेश उपाध्याय
दफ्तर का एक बाबू मरा सीधा नरक में जा कर गिरा न तो उसे कोई दुख हुआ ना ही वो घबराया यों खुशी में झूम कर चिल्लाया – ‘वाह वाह क्या व्यवस्था है‚ क्या सुविधा है‚ क्या शान है! नरक के निर्माता तू कितना महान है! आंखों में क्रोध लिये यमराज प्रगट हुए बोले‚ ‘नादान दुख और पीड़ा का यह …
Read More »दुपहरिया: केदार नाथ सिंह
झरने लगे नीम के पत्ते बढ़ने लगी उदासी मन की, उड़ने लगी बुझे खेतों से झुर झुर सरसों की रंगीनी, धूसर धूप हुई मन पर ज्यों – सुधियों की चादर अनबीनी, दिन के इस सुनसान पहर में रुकसी गई प्रगति जीवन की। सांस रोक कर खड़े हो गये लुटे–लुटे से शीशम उन्मन, चिलबिल की नंगी बाहों में भरने लगा एक …
Read More »दाने: केदार नाथ सिंह
नहीं हम मंडी नहीं जाएंगे खलिहान से उठते हुए कहते हैं दाने जाएँगे तो फिर लौट कर नहीं आएँगे जाते जाते कहते जाते हैं दाने अगर लौट कर आए भी तो तुम हमें पहचान नहीं पाओगे अपनी अंतिम चिट्ठी में लिख भेजते हैं दाने उसके बाद महीनों तक बस्ती में काई चिट्ठी नहीं आती ~ केदार नाथ सिंह
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