आज अचानक सूनीसी संध्या में जब मैं यों ही मैले कपड़े देख रहा था किसी काम में जी बहलाने, एक सिल्क के कुर्ते की सिलवट में लिपटा, गिरा रेशमी चूड़ी का छोटासा टुकड़ा, उन गोरी कलाइयों में जो तुम पहने थीं, रंग भरी उस मिलन रात में मैं वैसे का वैसा ही रह गया सोचता पिछली बातें दूज कोर से …
Read More »चिड़िया और चुरुगन: हरिवंश राय बच्चन
छोड़ घोंसला बाहर आया‚ देखी डालें‚ देखे पात‚ और सुनी जो पत्ते हिलमिल‚ करते हैं आपस में बात; माँँ‚ क्या मुझको उड़ना आया? “नहीं चुरूगन‚ तू भरमाया” डाली से डाली पर पहुँचा‚ देखी कलियाँ‚ देखे फूल‚ ऊपर उठ कर फुनगी जानी‚ नीचे झुक कर जाना मूल; माँँ‚ क्या मुझको उड़ना आया? “नहीं चुरूगन तू भरमाया” कच्चे–पक्के फल पहचाने‚ खाए और …
Read More »छोटे शहर की यादें: शार्दुला नोगजा
मुझे फिर बुलातीं हैं मुस्काती रातें, वो छोटे शहर की बड़ी प्यारी बातें। चंदा की फाँकों का हौले से बढ़ना, जामुन की टहनी पे सूरज का चढ़ना। कड़कती दोपहरी का हल्ला मचाना, वो सांझों का नज़रें चुरा बेर खाना। वहीं आ गया वक्त फिर आते जाते, ले फूलों के गहने‚ ले पत्तों के छाते। बहना का कानों में हँस फुसफुसाना, …
Read More »छाया मत छूना: गिरिजा कुमार माथुर
छाया मत छूना मन‚ होगा दुख दूना। जीवन में हैं सुरंग सुधियां सुहावनी छवियों की चित्र गंध फैली मनभावनी: तन सुगंध शेष रही बीत गई यामिनी‚ कुंतल के फूलों की याद बनी चांदनी। भूली सी एक छुअन बनता हर जीवित क्षण – छाया मत छूना मन‚ होगा दुख दूना। यश है ना वैभव है मान है न सरमाया; जितना भी …
Read More »ए माँ तू कहाँ: कवि प्रदीप
ए माँ तू कहाँ मेरी अंधी आँखे ढूंढ रही है तुझको यहाँ वहाँ ए माँ तू कहाँ तू कहाँ तेरे घर का दुलारा आज सड़क पे मारा मारा भटके तेरे घर दुलारा आज सड़क पे मारा मारा भटके दर दर की ठोकरे खाता हुआ तेरी आँख का तारा भटके मैं तुझ कैसे आऊ मैं तुझ तक कैसे आऊ हे बहुत …
Read More »चलो चलें माँ: कवि प्रदीप
चलो चलें माँ सपनों के गाँव में काँटों से दूर कहीं फूलों की छाओं में चलो चले माँ हो राहें इशारे रेशमी घटाओं में चलो चलें माँ सपनों के गाँव में काँटों से दूर कहीं फूलों की छाओं में चलो चलें माँ आओ चलें हम एक साथ वहाँ दुःख ना जहाँ कोई ग़म ना जहाँ आओ चलें हम एक साथ …
Read More »यहाँ वहाँ जहाँ तहाँ, मत पूछो कहाँ-कहाँ है सँतोषी माँ: कवि प्रदीप
यहाँ वहाँ जहाँ तहाँ, मत पूछो कहाँ-कहाँ है सँतोषी माँ! अपनी सँतोषी माँ, अपनी सँतोषी माँ… जल में भी थल में भी, चल में अचल में भी, अतल वितल में भी माँ! अपनी सँतोषी माँ, अपनी सँतोषी माँ… बड़ी अनोखी चमत्कारिणी, ये अपनी माई राई को पर्वत कर सकती, पर्वत को राई द्धार खुला दरबार खुला है, आओ बहन भाई …
Read More »रोते रोते हँसना सीखो: आनंद बक्षी
रोते रोते हँसना सीखो, हँसते हँसते रोना जितनी चाभी भरी राम ने, अरे उतना चले खिलौना – २ हम दो एक हमारी प्यारी प्यारी मुनिया है बस यही चोटी सी अपनी सारी दुनिया है हम दो एक हमारी प्यारी प्यारी मुनिया है खुशियों से आबाद है, अपने घर का कोना कोना रोते रोते… बड़ी बड़ी खुशियां हैं छोटी छोटी बातों …
Read More »हम सब सुमन एक उपवन के: द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
हम सब सुमन एक उपवन के एक हमारी धरती सबकी, जिसकी मिट्टी में जन्मे हम। मिली एक ही धूप हमें है, सींचे गए एक जल से हम। पले हुए हैं झूल-झूल कर, पलनों में हम एक पवन के। हम सब सुमन एक उपवन के॥ रंग रंग के रूप हमारे, अलग-अलग है क्यारी-क्यारी। लेकिन हम सबसे मिलकर ही, इस उपवन की शोभा सारी। एक हमारा माली …
Read More »इतने ऊँचे उठो: द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
इतने ऊँचे उठो कि जितना उठा गगन है। देखो इस सारी दुनिया को एक दृष्टि से सिंचित करो धरा, समता की भाव वृष्टि से जाति भेद की, धर्म-वेश की काले गोरे रंग-द्वेष की ज्वालाओं से जलते जग में इतने शीतल बहो कि जितना मलय पवन है। नये हाथ से, वर्तमान का रूप सँवारो नयी तूलिका से चित्रों के रंग उभारो …
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