है भूमि बन्ध्या हो रही, वृष–जाति दिन भर घट रही घी दूध दुर्लभ हो रहा, बल वीय्र्य की जड़ कट रही गो–वंश के उपकार की सब ओर आज पुकार है तो भी यहाँ उसका निरंतर हो रहा संहार है दाँतों तले तृण दाबकर हैं दीन गायें कह रहीं हम पशु तथा तुम हो मनुज, पर योग्य क्या तुमको यही? हमने …
Read More »अपराध – नसीम अख्तर
संकरी, अंधेरी गीली गीली गलियों के दड़बेनुमा घरों की दरारों से आज भी झांकते हैं डर भरी आंखों और सूखे होंठों वाले मुरझाए, पीले निर्भाव, निस्तेज चेहरे जिन का एक अलग संसार है और है एक पूरी पीढ़ी जो सदियों से भोग रही है उन कर्मों का दंड जो उन्होंने किए ही नहीं अनजाने ही हो जाता है उन से …
Read More »हौंसले – रेखा चंद्रा
खुले आसमान में करे परवाज हौसले हर पंछी में नहीं होते सिर्फ बहार ही तो नहीं बाग में ठूंठ भी यहां कम नहीं होते सीप में बने मोती हर बूंद के ऐसे मौके नहीं होते आंख में आंसू होंठों पर मुसकान ऐसे दीवाने भी कम नहीं होते जहां जाएं रोने के लिए ऐसे कोने हर घर में नहीं होते मरने …
Read More »उग आया है चाँँद – नरेंद्र शर्मा
सूरज डूब गया बल्ली भर – सागर के अथाह जल में। एक बाँँस भर उग आया है – चाँद‚ ताड़ के जंगल में। अगणित उँगली खोल‚ ताड़ के पत्र‚ चाँदनीं में डोले‚ ऐसा लगा‚ ताड़ का जंगल सोया रजत–पत्र खोले‚ कौन कहे‚ मन कहाँ–कहाँ हो आया‚ आज एक पल में। बनता मन का मुकुल इन्दु जो मौन गगन में ही …
Read More »तुम कितनी सुंदर लगती हो – धर्मवीर भारती
तुम कितनी सुंदर लगती हो जब तुम हो जाती हो उदास! ज्यों किसी गुलाबी दुनिया में सूने खंडहर के आसपास मदभरी चांदनी जगती हो! मुख पर ढंक लेती हो आंचल ज्यों डूब रहे रवि पर बादल‚ या दिनभर उड़ कर थकी किरन‚ सो जाती हो पांखें समेट‚ आंचल में अलस उदासी बन! दो भूल–भटके सांध्य–विहग‚ पुतली में कर लेते निवास! …
Read More »नेताओं का चरित्र – माणिक वर्मा
सब्जी वाला हमें मास्टर समझता है चाहे जब ताने कसता है ‘आप और खरीदोगे सब्जियां! अपनी औकात देखी है मियां! हरी मिर्च एक रुपए की पांच चेहरा बिगाड़ देगी आलुओं की आंच आज खा लो टमाटर फिर क्या खाओगे महीना–भर? बैगन एक रुपए के ढाई भिंडी को मत छूना भाई‚ पालक पचास पैसे की पांच पत्ती गोभी दो आने रत्ती‚ …
Read More »मंहगा पड़ा मायके जाना – राकेश खण्डेलवाल
तुमने कहा चार दिन‚ लेकिन छह हफ्ते का लिखा फ़साना‚ सच कहता हूं मीत‚ तुम्हारा मंहगा पड़ा मायके जाना! कहां कढ़ाई‚ कलछी‚ चम्मच‚ देग‚ पतीला कहां कटोरी‚ नमक‚ मिर्च‚ हल्दी‚ अजवायन‚ कहां छिपी है हींग निगोड़ी‚ कांटा‚ छुरी‚ प्लेट प्याले सब‚ सासपैेन इक ढक्कन वाला‚ कुछ भी हम को मिल न सका है‚ हर इक चीज छुपा कर छोड़ी‚ सारी …
Read More »मंजिल दूर नहीं है – रामधारी सिंह दिनकर
वह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल दूर नहीं है। थक कर वैठ गये क्या भाई ! मंजिल दूर नहीं है। अपनी हड्डी की मशाल से हृदय चीरते तम का‚ सारी रात चले तुम दुख – झेलते कुलिश निर्मल का‚ एक खेय है शेष किसी विध पार उसे कर जाओ‚ वह देखो उस पार चमकता है मंदिर प्रियतम का। आकर …
Read More »मनुष हौं तो वही रसखान
मनुष हौं‚ तो वही ‘रसखानि’ बसौं बृज गोकुल गांव के ग्वारन जो पसु हौं‚ तो कहां बस मेरौ‚ चरौं नित नंद की धेनु मंझारन पाहन हौं‚ तौ वही गिरि कौ‚ जो धरयो कर छत्र पुरंदर कारन जो खग हौं‚ तौ बसेरो करौं मिलि कालिंदिकूल–कदंब की डारन। या लकुटी अरु कामरिया पर‚ राज तिहूं पुर को तजि डारौं आठहुं सिद्धि नवों …
Read More »मैं सबको आशीश कहूंगा – नरेंद्र दीपक
मेरे पथ पर शूल बिछाकर दूर खड़े मुस्काने वाले दाता ने संबंधी पूछे पहला नाम तुम्हारा लूंगा। आंसू आहें और कराहें ये सब मेरे अपने ही हैं चांदी मेरा मोल लगाए शुभचिंतक ये सपने ही हैं मेरी असफलता की चर्चा घर–घर तक पहुंचाने वाले वरमाला यदि हाथ लगी तो इसका श्रेय तुम्ही को दूंगा। सिर्फ उन्हीं का साथी हूं मैं …
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