झर गये पात बिसर गई टहनी करुण कथा जग से क्या कहनी? नव कोंपल के आते–आते टूट गये सब के सब नाते राम करे इस नव पल्लव को पड़े नहीं यह पीड़ा सहनी झर गये पात बिसर गई टहनी करुण कथा जग से क्या कहनी? कहीं रंग है‚ कहीं राग है कहीं चंग है‚ कहीं फाग है और धूसरित पात …
Read More »ताला-चाबी – ओमप्रकाश बजाज
छोटे से छोटे से लेकर, खूब बड़े ताले आते है। मकान, दुकान, दफ्तर, फैक्टरी, बक्स गाडी में लगाए जाते है। ताला सुरक्षा का एक साधन है, सदियों से इसका प्रचलन है। अलीगढ़ के ताले प्रसिद्ध है, अब तो कई जगह बनते हैं। ताला अपनी चाबी से खुलता है, नंबरों वाला ताला भी आता है। चाबी सदा संभाल कर रखना, इधर-उधर …
Read More »कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता – निदा फ़ाज़ली
कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता कहीं ज़मीं तो कहीं आसमाँ नहीं मिलता बुझा सका है भला कौन वक़्त के शोले ये ऐसी आग है जिसमें धुआँ नहीं मिलता तमाम शहर में ऐसा नहीं ख़ुलूस न हो जहाँ उमीद हो सकी वहाँ नहीं मिलता कहाँ चिराग़ जलायें कहाँ गुलाब रखें छतें तो मिलती हैं लेकिन मकाँ नहीं मिलता ये …
Read More »पिता सरीखे गांव – राजेंद्र गौतम
तुम भी कितने बदल गये हो पिता सरीखे गांव! परंपराओं का बरगद सा कटा हुआ यह तन बो देता है रोम रोम में बेचैनी सिहरन तभी तुम्हारी ओर उठे ये ठिठके रहते पांव। जिसकी वत्सलता में डूबे कभी सभी संत्रास पच्छिम वाले उस पोखर की सड़ती रहती लाश किसमें छोड़ें सपनों वाली काग़ज की यह नाव! इस नक्शे से मिटा …
Read More »कुछ मैं कहूं कुछ तुम कहो – रमानाथ अवस्थी
जीवन कभी सूना न हो कुछ मैं कहूं‚ कुछ तुम कहो। तुमने मुझे अपना लिया यह तो बड़ा अच्छा किया जिस सत्य से मैं दूर था वह पास तुमने ला दिया अब जिंदगी की धार में कुछ मैं बहूं‚ कुछ तुम बहो। जिसका हृदय सुन्दर नहीं मेरे लिये पत्थर वही मुझको नई गति चाहिये जैसे मिले‚ वैसे सही मेरी प्रगति …
Read More »जीवन के रेतीले तट पर – अजित शुकदेव
जीवन के रेतीले तट पर‚ मैं आँधी तूफ़ान लिये हूँ। अंतर में गुमनाम पीर है गहरे तम से भी है गहरी अपनी आह कहूँ तो किससे कौन सुने‚ जग निष्ठुर प्रहरी पी–पीकर भी आग अपरिमित मैं अपनी मुस्कान लिये हूँ। आज और कल करते करते मेरे गीत रहे अनगाये जब तक अपनी माला गूँथूँ तब तक सभी फूल मुरझाये तेरी …
Read More »एक चाय की चुस्की – उमाकांत मालवीय
एक चाय की चुस्की, एक कहकहा अपना तो इतना सामान ही रहा चुभन और दंशन पैने यथार्थ के पग–पग पर घेरे रहे प्रेत स्वार्थ के भीतर ही भीतर मैं बहुत ही दहा किंतु कभी भूले से कुछ नहीं कहा एक चाय की चुस्की, एक कहकहा एक अदद गंध, एक टेक गीत की बतरस भीगी संध्या बातचीत की इन्हीं के भरोसे …
Read More »क्या करूँ अब क्या करूँ – राजीव कृष्ण सक्सेना
माम को मैं तंग करूँ या डैड से ही जंग करूँ मैं दिन रहे सोता रहूँ फिर रात भर रोता रहूँ पेंट बुक दे दो जरा तो रंग कागज पर भरूँ या स्काइप को ही खोल दो तो बात नानी से करूँ मैं बाल खीचूं माम के की ले चलो बाहर मुझे या झूल जाऊं मैं गले से कोई ना …
Read More »यहाँ भी, वहाँ भी – निदा फ़ाज़ली
इंसान में हैवान यहाँ भी है वहाँ भी अल्लाह निगहबान यहाँ भी है वहाँ भी खूँख्वार दरिन्दों के फ़क़त नाम अलग हैं शहरों में बयाबान यहाँ भी है वहाँ भी रहमान की कुदरत हो या भगवान की मूरत हर खेल का मैदान यहाँ भी है वहाँ भी हिंदू भी मज़े में है‚ मुसलमाँ भी मजे में इन्सान परेशान यहाँ भी …
Read More »तुम निश्चिन्त रहना – किशन सरोज
कर दिये लो आज गंगा में प्रवाहित सब तुम्हारे पत्र‚ सारे चित्र तुम निश्चिन्त रहना। धुंध डूबी घाटियों के इंद्रधनुष छू गये नत भाल पर्वत हो गया मन बूंद भर जल बन गया पूरा समंदर पा तुम्हारा दुख तथागत हो गया मन अश्रु जन्मा गीत कमलों से सुवासित वह नदी होगी नहीं अपवित्र तुम निश्चिन्त रहना। दूर हूं तुमसे न …
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