रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद, आदमी भी क्या अनोखा जीव है! उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता, और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है। जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ? मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते। आदमी का स्वप्न? …
Read More »आदमी का आकाश – राम अवतार त्यागी
भूमि के विस्तार में बेशक कमी आई नहीं है आदमी का आजकल आकाश छोटा हो गया है। हो गए सम्बन्ध सीमित डाक से आए ख़तों तक और सीमाएं सिकुड़ कर आ गईं घर की छतों तक प्यार करने का तरीका तो वही युग–युग पुराना आज लेकिन व्यक्ति का विश्वास छोटा हो गया है। आदमी की शोर से आवाज़ नापी जा …
Read More »आ रही रवि की सवारी – हरिवंश राय बच्चन
नव-किरण का रथ सजा है, कलि-कुसुम से पथ सजा है, बादलों-से अनुचरों ने स्वर्ण की पोशाक धारी। आ रही रवि की सवारी। विहग, बंदी और चारण, गा रही है कीर्ति-गायन, छोड़कर मैदान भागी, तारकों की फ़ौज सारी। आ रही रवि की सवारी। चाहता, उछलूँ विजय कह, पर ठिठकता देखकर यह- रात का राजा खड़ा है, राह में बनकर भिखारी। आ …
Read More »अंतर – कुंवर बेचैन
मीठापन जो लाया था मैं गाँव से कुछ दिन शहर रहा अब कड़वी ककड़ी है। तब तो नंगे पाँव धूप में ठंडे थे अब जूतों में रह कर भी जल जाते हैं तब आया करती थी महक पसीने से आज इत्र भी कपड़ों को छल जाते हैं मुक्त हँसी जो लाया था मैं गाँव से अब अनाम जंजीरों ने आ …
Read More »विज्ञान और मानव मन (कुरुक्षेत्र से) – रामधारी सिंह दिनकर
पूर्व युग–सा आज का जीवन नहीं लाचार आ चुका है दूर द्वापर से बहुत संसार यह समय विज्ञान का, सब भाँति पूर्ण, समर्थ खुल गये हैं गूढ़ संसृति के अमित गुरु अर्थ। वीरता तम को सँभाले बुद्धि की पतवार आ गया है ज्योति की नव भूमि में संसार हैं बंधे नर के करों में वारि, विद्युत, भाप हुक्म पर चढ़ता …
Read More »कुछ न हम रहे – श्रीकृष्ण तिवारी
अपने घर देश में बदले परिवेश में आँधी में उड़े कभी लहर में बहे तिनकों से ज़्यादा अब कुछ न हम रहे। चाँद और सूरज थे हम, पर्वत थे, सागर थे हम, चाँदी के पत्र पर लिखे, सोने के आखर थे हम, लेकिन बदलाव में, वक़्त के दबाव में, भीतर ही भीतर कुछ इस तरह ढहे खंडहर से ज़्यादा अब …
Read More »बाल कविता – सीखा हमने – परशुराम शुक्ल
धरती से सीखा है हमने सबका बोझ उठाना और गगन से सीखा हमने ऊपर उठते जाना सूरज की लाली से सीखा जग आलोकित करना चंदा की किरणों से सीखा सबकी पीड़ा हरना पर्वत से सीखा है हमने दृढ़ संकाल्प बनाना और नदी से सीखा हमने आगे बढ़ते जाना सागर की लहरों से सीखा सुख दुख को सह जाना तूफानों ने …
Read More »नई सहर आएगी – निदा फ़ाज़ली
रात के बाद नए दिन की सहर आएगी दिन नहीं बदलेगा तारीख़ बदल जाएगी हँसते–हँसते कभी थक जाओ तो छुप कर रो लो यह हँसी भीग के कुछ और चमक जाएगी जगमगाती हुई सड़कों पर अकेले न फिरो शाम आएगी किसी मोड़ पे डस जाएगी और कुछ देर यूँ ही जंग, सियासत, मज़हब और थक जाओ अभी नींद कहाँ आएगी …
Read More »गाल पे काटा – ज़िया उल हक़ कासिमी
माशूक जो ठिगना है तो आशिक भी है नाटा इसका कोई नुकसान, न उसको कोई घाटा। तेरी तो नवाज़िश है कि तू आ गया लेकिन ऐ दोस्त मेरे घर में न चावल है न आटा। तुमने तो कहा था कि चलो डूब मरें हम अब साहिले–दरिया पे खड़े करते हो ‘टाटा’। आशिक डगर में प्यार की चौबंद रहेंगे सीखा है …
Read More »बैरागी भैरव – बुद्धिनाथ मिश्र
बहकावे में मत रह हारिल एक बात तू गाँठ बाँध ले केवल तू ईश्वर है बाकी सब नश्वर है ये तेरी इन्द्रियाँ, दृश्य सुख–दुख के परदे उठते–गिरते सदा रहेंगे तेरे आगे मुक्त साँड बनने से पहले लाल लोह–मुद्रा से वृष जाएँगे दागे भटकावे में मत रह हारिल पकड़े रह अपनी लकड़ी को यही बताएगी अब तेरी दिशा किधर है। ये …
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