प्यार… जी हां इसी माह में सोलहवें वसंत का पहला-पहला प्यार हुआ था। आज भी दिल के किसी खास कोने में वह उसी ताजे भीगे गुलाब की तरह रखा है। ना वक्त की धूप उसे झुलसा सकी है ना ही हालात की धूल का एक कण भी उसे छू सका है।
फरवरी का माह उस गुलाब को मन के कोने से उठा कर मेरे मानस की सतह पर ले आता है। स्मृतियों के गवाक्ष स्वत: ही खुल जाते हैं। लगता है जैसे मैं ढेर सारे मयूरपंखों के बीच मखमली तितली की तरह कोमल फुदकन ले रही हूं।
प्यार… कितना मोहक, मादक महकता और मासूम सा लफ्ज है। सच कहा है किसी ने कि प्यार अगर सच्चा हो तो कभी बेमानी नहीं होता। मैं तो आज भी अकेली हूं लेकिन फिर भी कितनी समृद्ध और संपन्न उस एहसास के साथ। माना कि अब वक्त की मांग है कि अब मैं अकेली ना रहूं, लौट आऊं अतीत के सुनहरे गलियारों से। मैं चाहती भी यही हूं। मगर कैलेंडर से इस फरवरी को माह को कैसे गायब करूं? और जब फरवरी माह कैलेंडर से जुदा नहीं हो सकता तो फिर भला मैं कैसे विस्मृत करूं उन निष्पाप, निश्छल और नितांत अबोध स्मृतियों को जो फरवरी के आते ही मुझमें हरसिंगार बन कर बरसने लगती है। फागुनी गुलाल-अबीर के गुबार बरबस ही मुझमें उठने लगते हैं।
जिसने मुझमें उम्र की वह पहली तरंग प्रवाहित की, आज वह कहां है, मैं नहीं जानती। जानना चाहती भी नहीं। … क्योंकि वह आंखों से आंखों तक पहुंचा अव्यक्त प्यार था। बिना आई लव यू कहे, बिना हाथ पकड़े, बिना साथ चले, बिना पास आए…! किंतु क्या सचमुच? देखा जाए तो आज भी तो उसने मेरा हाथ पकड़ा है, आज भी वह मेरे साथ है, आज भी आसपास है। चाहे फरवरी ही उसे मुझ तक लेकर आए। आप चाहे तो इसे प्यार कह सकते हैं… मेरे लिए तो यह भावना आज भी अनाम है… उसकी ही तरह।