कष्ट न हो औरों को ऐसे जीएं
जीवन रस बाटें सबको, खुद दुख पीएं।
निर्मल करो ज्ञान को अपने
त्यागो मोह, भय और अज्ञान
राग द्वेष को नष्ट करो
मिले मोक्ष सुख खान
जीओ और जीने दो: भगवान महावीर
भगवान महावीर का दार्शनिक दृष्टिकोण इसी आधार पर निर्मित हुआ था जो उनके युग में जितना प्रासंगिक था, आज भी उतना ही प्रासंगिक है। आज हम जिस स्वतंत्रता, सापेक्षता, सह अस्तित्व, समन्वय, समत्वानुभूति जैसे अनिवार्य मानवीय मूल्यों को सर्वाधिक महत्व देते हैं उसे भगवान महावीर ने आज से लगभग पच्चीस सौ साल पहले समझा था और उसकी व्याख्या की थी।
महावीर स्वामी कहते हैं कि मन, वचन और शरीर से किसी भी प्राणी को पीड़ा नहीं पहुंचानी चाहिए। महावीर कहते हैं कि तुम बाहर मित्रों को क्यों ढूंढ़ते हो, तुम खुद ही अपने मित्र हो, तुम खुद ही अपने मित्र हो और खुद अपने शत्रु। तुम्हें मित्रता, मधुरता और मिठास पानी है तो उसे अपने अंदर देखो।
भगवान महावीर ने अपने अनुयायी प्रत्येक साधुओं और गृहस्थों के लिए अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य अपरिग्रह के पांच व्रतों का पालन करना आवश्यक बताया है, पर इन सबमें अहिंसा की भावना सम्मिलित है।
महावीर स्वामी ने संसार में जीव की स्थिति और कर्मानुसार उसकी भली बुरी गति के संबंध में गहन चिंतन के उपरांत जिस जीवन प्रणाली का प्रतिपादन किया वह जैन धर्म में बारह भावना के नाम से प्रसिद्ध है। ये बारह भावनाएं हैं – अनित्य जगत के लिए मैं उत्सुक नहीं होऊंगा। अशरण भावना अर्थात जिस प्रकार निर्जन वन में सिंह के पंजे में आए शिकार के लिए कोई शरण नहीं होती। उसी प्रकार सांसारिक प्राणियों की रोग व मृत्यु से रक्षा करने वाला कोई नहीं है। संसारानुप्रेक्षा भावना का अर्थ है अज्ञानी जन भोग विषयों को भी सुख मानते हैं किन्तु ज्ञानी उनको नरक का निमित्त समझते हैं, इसलिए मानव को सतकर्मों द्वारा पाप से छूटने का यत्न करना चाहिए। एकत्व भावना प्राणी को जन्म के बाद अकेले ही संसार रूपी वन में भटकना होता है। अन्यत्व भावना का अर्थ है कि जगत में कोई भी संबंध स्थित नहीं है माता-पिता, पत्नी व संतान भी अपने नहीं हैं। समस्त सांसारिक पदार्थ व्यक्ति से अलग हैं। अशुचि भावना का अर्थ है रुधिर, वीर्य आदि से उतपन्न यह शरीर मल मूत्र आदि से भरा हुआ है।
अतः इस पर गर्व करना अनुचित है। असत्व भावना यानी जिस प्रकार छिद्र युक्त जहाज जल में डूब जाता है उसी प्रकार जीव भी कर्मों के अनुसार इस भवसागर से डूबता उतरता रहता है। निर्जरा भावना का अर्थ है पूर्व कर्मों की तपस्या द्वारा क्षय करना ही योगियों का कर्त्तव्य है। इस तरह कुल बारह भावनाओं के परिमार्जन से जीवन की मोक्ष की दिशा देने वाले महावीर जी समाज का उद्धार कर सकने में समर्थ हो सके।
संसार का प्रत्येक महापुरष अपने समय में जीवन के गहनतम अनुभवों एवं अपनी उग्र तपस्याओं के द्वारा संसार के मंगल मार्ग का दर्शन करवाता रहा है परंतु भगवान महावीर के अनुभव अपने युग की समस्याओं के ही समाधान नहीं बल्कि वे समाधान हैं युग-युग तक मंगलकारी रहेगी। जैसे एक फूल अपने आसपास के प्रदेश को सुरक्षित करता रहता है इसी प्रकार भगवान महावीर का ध्यान मात्र ही वातावरण को मंगलकारी बना सकता है।
भगवान महावीर का जीवन एक शुद्ध स्फटिक मणि है प्रत्येक प्राणी उसमें अपने वास्तविक रूप का दर्शन कर सकता है। महावीर का जीवन दर्शन सबके लिए एक है। उसे कोई भी स्वीकार कर सकता है, उनका जीवन दर्शन देश और काल की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता, वह सारे संसार के लिए है।
भगवान महावीर ने मानव भव दुर्लभता का वर्णन करते हुए गणधर गौतम से कहा था कि हे गौतम सब प्राणियों के लिए चिरकाल में मनुष्य जन्म दुर्लभ है क्योंकि कर्मों आवरण अति गहन है, अंततः इस भव को पाकर एक क्षण के लिए भी प्रमाद तथा आलस नहीं करना चाहिए। अनेक गतियों और योनियों में भटकते-भटकते जब जीव शुद्ध को प्राप्त करता है तब कहीं जाकर मनुष्य योनि प्राप्त होती है।
आज के भौतिक युग के अशांत जन मानस को भगवान महावीर की पवित्र वाणी ही परम सुख और शांति प्रदान कर सकती है। यदि आज विश्व के लोग भगवान महावीर के अहिंसा परमोधर्म, अपरिग्रह और अनेकांतवाद को अपना लें तो सब रगड़े-झगड़े मिट सकते हैं, शांति स्थापित हो सकती है और मानव सुखी रह सकता है।