Navratri Festival Celebrations: Then and Now नवरात्र का बदलता स्वरुप

नवरात्र का बदलता स्वरुप: मंजरी शुक्ला

अगर भ्रूण हत्या इसी प्रगति की राह पर चलती हुई दो दूनी चार की रफ़्तार से चलती रही तो वो दिन दूर नहीं जब नवरात्र में कन्या पूजन के लिए एडवांस बुकिंग करवानी पड़ेगी। समय बदल रहा हैं तो भला पूजा के तौर तरीके कैसे ना बदलते। आश्चर्यजनक तरीके से अचानक दबे पाँव एक आंधी आई और किसी को पता भी नहीं चला। अगर हम कुछ साल पहले की दुर्गा पूजा और सजे हुए पंडालो को याद करे तो हमारे अवचेतन मन में एक सुखद सी अनुभूति होती हैं। तब आज की तरह हर घर में कार और प्रत्येक सदस्य के दुपहिया वाहन नहीं होते थे। इसलिए हम कारों की लम्बी कतारों और घंटों ट्रेफिक में फसें होने का दुखद अनुभव प्राप्त नहीं कर पाते थे। आराम से खा पीकर माँ दुर्गा के विविध रूपों को देखने की उत्सकुता हमारे अन्य कार्यो में भी दिखाई देती थी।

उस दिन सुबह से ही हमारे वो तमाम नखरे बंद हो जाते थे जो हम सुबह स्कूल जाते वक्त करते थे। चाहे करेला बना हो या हमारी सख्त नापसंद लौकी, हम खून का घूँट पीकर उसको मुस्कुराते हुए खाते थे। क्योंकि हम जान रहे होते थे कि पिताजी अपना चश्मा चढ़ाये देख तो दूसरी ओर रहे है पर आँख और कान पूरे हम पर ही जमे हुए हैं।आराम से खा पीकर माँ दुर्गा के विविध रूपों को देखने की उत्सकुता हमारे अन्य कार्यो में भी दिखाई देती थी। उस दिन सुबह से ही हमारे वो तमाम नखरे बंद हो जाते थे जो हम सुबह स्कूल जाते वक्त करते थे। पर हम दोनों ही अपने नाटक का अभिनय बखूबी करते थे शायद यह हमारे बीच की आपसी समझ थी और मेरा उनके लिए अपार आदर तथा उनका मेरे प्रति अगाध प्रेम। पर आज बच्चों में वो डर और माता पिता के लिए सम्मान कही खोता जा रहा हैं।

माँ-बाप बच्चों को आया के भरोसे छोड़कर पैसा कमाने में मशीन हुए जा रहे हैं और उनके साथ समय नहीं बिताते। बच्चों के दिमाग में और नन्हे बचपन में वहीँ दुनियादारी बीज बो रहे हैं कि देखो मैं तुम्हारे लिए ये लाया, वो लाया। अगर बच्चा कोई बात नहीं सुनता हैं तो उसको हजारो बार महसूस कराया जाता हैं कि उस को इतनी सुख सुविधाए मिलने के बाद भी वो अनसुना कैसे कर सकता हैं हालात तो इतने बदतर हो गए हैं कि एक मासूम बच्चा जब अपने बर्थ डे पर किलकारिया भरता गिफ्ट खोलने बढ़ता हैं तो माँ-बाप उस को खा जाने वाली नज़रों से घूरते हैं। बेचारा सहम कर उन्हें अपना गिफ्ट पकड़ा देता हैं। बच्चे की उत्सुकता व उसके गुस्से का कोई असर नहीं। जब सारे मेहमान चले जाते हैंतो पेन कापी निकलती है और उसमे तमाम तोहफों का प्यार और अपनापन बड़ी बेदर्दी से नोंचकर फ़ेंक दिया जाता हैं और नज़र गढ़ाई जाती हैं प्राइस पर। हर जन्मदिन में बच्चे को दोस्ती के इस विभत्स रूप का यह गुणा भाग सिखाकर इतना मजबूत बना दिया जाता हैं वो जीवन में अपने दोस्त,अपने रिश्ते और खुद अपने आपको पैसे के तराजू में तौलने लगता हैं। अगर मासूम बच्चे को एक पेन मिलने पर यह सिखाया जाए कि दुनिया में बड़ी से बड़ी क्रांति कलम से ही हुई हैं तो शायद वो अपने शिक्षक या उस मध्यम वर्गीय मित्र का सम्मान सच्चे दिल से कर सके और सही अर्थो में एक उत्तम नागरिक बन सके।

चलिए तो झांकी देखने का बता रही थी मैं आपको। हम रात मैं दौड़कर पड़ोस की चाची ताई बुआ और मौसी को बुला लाते। तब आजकल की तरह आंटी वाला फैशन नहीं था। सब को एक अनजानी आत्मीयता की मजबूत डोर धर्म संप्रदाय एक न होते हुए भी कसकर बांधे हुए थी जो आज तक उस सुखद एहसास से जोड़े हुए हैं। हंसी ठिठोली करते हम कब माँ दुर्गा के भव्य और सुन्दर पंडालो में पहुंचकर अपना शीश नवा देते और श्रद्धा से हमारी आँखों से हमारी आँखे आसुओं से झिलमिला उठती हम जान ही न पाते। दुर्गा पूजा में सबसे बड़ी खासियत होती हैं कि लोग अपनी व्यस्त और उबाऊ दिनचर्या से लौटकर एक नई उर्जा के साथ भगवती की आराधना में लग जाते हैं। जब भी माँ की तरफ देखते तो ऐसा लगता वो मुस्कुराती हुई हमसे बोल पड़ेगी। हम बारी-बारी जितनी झाँकियाँ देख सकते देखते और माँ जगदम्बा के रंग में पूरी तरह सराबोर हो उठते।

हाथो में खड्ग खप्पर लिए और शेर की सवारी करती हुई जब वो हमें दिखती तो माँ का सस्वर दुर्गा सप्तशती का पाठ करना याद आ जाता जिसमे माँ भगवती देवो की रक्षा करती हुई असुरों और दुष्टों का संहार करती हैं। यह देखकर हम में अदभुत ऊर्जा का संचार हो जाता। भाव विव्हल होते हुए हम जब आगे बढते तो पिताजी की आँखों में आँसू साफ़ दिखते जिन्हें वे बार बार चश्मा उतारकर पोंछते करते।

तभी माँ पिताजी को नारियल की उपमा देती थी और हम लोग खूब हँसते थे पर जब सालों बाद उसका मतलब समझ आया हैं तो मन करता हैं मेरा पूरा समाज नारियल के जैसा ही हो जाए। तब माँ की झांकी की कीमत रुपये पैसो से नहीं आंकी जाती थी। पर समय ने करवट ली और लोगो ने पैसा कमाने की रेस में अधाधुंध दौड़ना शुरू किया तो देवी देवताओं भी नहीं बख्शा। उन्हें भी अपने साथ रेस में दौड़ा लिया। सच्ची भक्ति की जगह प्रतिस्पर्धा की भावना आ गई। उसका पांडाल अगर एक लाख में सजने वाला हैं तो मैं चाहे जान की बाजी लगा दूँ पर दो लाख से कम नहीं लगाऊंगा। चाहे पांडाल के सामने बनी झोपडी के आगे भूख से बेहाल बच्चे रो रोकर अधमरे हो जाए पर मैं किसी दुकान से एक बिस्कुट का पैकेट खरीद कर नहीं दूंगा हाँ पर यहाँ मेरी घड़ी भी बिक जाए तो कोई परवाह नहीं। क्योंकि जब भूख से कुल बुलाते बच्चे का पेट भरेगा तो किसी को पता नहीं चलेगा पर मेरी झांकी के आगे मैं अपना इस्त्री करा सफ़ेद कुरता पैजामा पहनकर खड़ा होऊंगा तो अखबारों में मेरे ही चर्चे होंगे शायद कही से एक दो तमगे भी मिल जाए। गरीबों का पूरा परिवार एक साथ केवल एक रोटी की आस में आत्महत्या करने पर विवश हो जाता हैं और दूसरी और एक शहर में दो करोड़ रुपये पानी तरह बहा दिए जाते हैं। हजारों मासूम बच्चे गरीबी के कारण इन्सेफेलाइटिस जैसी गंभीर बीमारी के कारण मौत के मुँह में जा रहे हैं। माँ दुर्गा तो दया का सागर हैं उसकी कृपा तो मात्र “जगदम्बिका” नाम का सच्चे मन से उच्चारण करने से ही प्राप्त हो जाती हैं फिर केवल दिखावे के लिए ही करोड़ो रुपये बहा देना कहाँ की अक्लमंदी हैं। हमें समाज की मदद करते हुए और आडम्बरो पर ना जाते हुए माँ की प्रतिमा सीधे सरल मन से सजानी चाहिए जिससे भगवती की कृपा हम पर वास्तव में बरसेगी…

डॉ. मंजरी शुक्ला

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