यदि कभी इन दोनों परिवारों में किसी एक के यहाँ कोई सांस्कृतिक कार्यक्रम होता या तीज – त्यौहार आता तो एक – दुसरे के यहाँ निमंत्रण देते और साथ – साथ खाना खाते थे। काम – काज और रूपए – पैसों के लेन – देन में भी ये परिवार आपस में एक – दुसरे का सहयोग करते थे। ये इतने करीब आ गए थे कि एक – दुसरे की अच्छाइयों और कमियों को जान गए थे। किसी तरह का पर्दा नही रह गया था। यानी जो बातें गांववालों को राज थी, एक पहेली थी वे आपस में भली प्रकार जानते थे। एक – दुसरे की रहस्यमयी बातें भी आपस में छुपी रह नही गई थी।
इन दोनों परिवारों की आपसी मित्रता गाँव के तमाम लोगों की आँखों में खटकती थी। वे इसी उधेड़बुन में रहते थे कि किसी तरह ये अलग – अलग हो जाएं। कुछ ऐसे भी लोग थे जो इन दोनों परिवारों की मित्रता से प्रसन्न थे और समय – समय पर इनके मित्रता की मिशाल देते थे।
कई साल बाद ऐसा समय आया कि गाँव के कुछ लोगों ने इन दोनों परिवारों में अनबन करा दी और उनकी आपसी मित्रता समाप्त हो गई। अब छोटी – सी – छोटी बात पर आपस में लड़ने – झगड़ने को तैयार हो जाते थे। लेकिन किसी तरह लड़ाई – झगड़े की नौबत टल जाती थी।
एक दिन ऐसी कहासुनी हुई कि एक – दुसरे के गड़े मुरदे उखाड़ने लगे। बातें दादों – परदादों तक पहुँचने की नौबत आ गई थी, तो एक ने कहा, “देख, झगड़ा मुझसे हो रहा है मुझसे कह। मेरे बाप – दादों तक मत जा। नही तो बहुत बुरा हो जाएगा।”
दोनों में तू – तू, मै – मै सुनकर लोग इकट्ठे हो गए थे। इसी बीच भीड़ में से एक बुजुर्ग बोल पड़े, “भाई ‘जब बात चलती है, तो दूर तक जाती है‘।” तुम लोग लड़ना – झगड़ना बंद क्यों नही कर देते।
उस बुजुर्ग की बात उनके कुछ समझ में आई और वे चुपचाप अपने – अपने घर चले गए।