कभी तीज त्यौहार आता या बिरादरी में किसी की शादी विवाह होता तो एकाध बच्चे के कपडे बन जाते। दुसरे बच्चो के कपडे भी इसी प्रकार बन पाते। बच्चो के कपडे फटते तो माँ सिलकर पहनने लायक बना देती।
जब तीज त्यौहार आते तो उस परिवार के बच्चे मोहल्ले के बच्चो को फल पकवान खाते देखते और मन ही मन अपनी इच्छा को मारते रहते । बच्चो की माँ की भी मजबूरी थी इसलिए वह भी यह सब देखती रहती थी। फिर भी वह कोशिश करती थी की कुछ न कुछ लाकर अपने बच्चो को दे तांकि बच्चो का मन बहल सके।
मकर संक्रांति का दिन था। घर घर बच्चे रेवड़ियां, गजक और भुने चने खाते नजर आ रहे थे। उस दिन घर में माँ के पास पैसे नही थे जिससे वह अपने बच्चो को ये सब चीज़े लाकर देती। जब बच्चे मांगते, तो माँ कह देती की अभी पैसे नही है। दो एक दिन में ला देंगे । लेकिन ऐसा नही हो सका।
एक बार घर वाले को मजदूरी के कई दिन के पैसे मिले, तो अनाज आदि जरूरी चीज़े आ गई। एक भी पैसा भी नहीं बचा। बच्चो की माँ ने सोचा की न कभी पैसा बचा सकेंगे और न बच्चो केलिए कोई चीज ही ला सकेंगे। ऐसा सोचते सोचते उसके दिमाग में एक विचार आया। क्यों न बझाङ (जौ चना) से थोड़े चने निकाल लिए जाएँ और भुनवाकर कर बच्चो को दे दें।
जब चने निकाल लिए तो उने भुनने की बात सामने आई। पहले उसने सोचा की क्यों न रोटियाँ बनाने के बाद चूल्हे की गर्म राख से भून ले। फिर सोचा की यदि चने जल गए और काले हो गए, तो बच्चे खाएंगे भी नही और नुक्सान भी हो जाएगा। इसलिए वह कटोरा भर चने लेकर भुनाने के लिए भाड़ पर जा पहुंची।
वहीं भुनाने वालो की कतार लगी हुई थी। कोई अनाज पोटली में लाया, कोई झोले में लाया था। उसके पास न कोई पोटली थी और न कोई झोला। वह थोड़े से चने धोती के कपडे में बांधे हाथ में लिए थी।
जब उसका नंबर आया, तो भड़भूजे ने उसकी ओर देखा और पूछा, “तेरा अनाज कहाँ है?”
वह हाथ में लेकर घाँठ खोलने लगा। मुटठी भर चने देखकर उसकी ओर देखने लगा, “इतना अनाज तो जलकर कोयला हो जाएगा।” उसने चनो को वापिस करते हुए कहा, “लेजा इतना अनाज नही भुना जाता।” वापस लेते हुए उसकी आँखों में आंसू छलछला आये।
उसकी गीली आखें देखते हुए भड़भूजे ने उसके हाथ से चने लेते हुए कहा ’घर में नहीं दाने, अम्मा चली भुनाने‘। भड़भूजे ने कपडे के चनो को अपने कच्चे में डाल दिया और बिक्री के लिए रखे भुने चनो में से एक मूंठा भरा और कपडे में बांधकर देते हुए कहा, “लेजा।”