“जी नही,” बिधु की पत्नी कुछ अड़ियल स्वभाव की थी। “जाएंगे तो दोनों, वरना कोई नही।”
“जैसी तुम्हारी मर्जी,” बिधु जम्हाई लेता हुआ बोला।
“क्या आपने ही सब काम करने का ठेका लिया है जबकि आपको भाई लम्बी तानकर पड़े रहते हैं? वह चिढ़कर बोली। “आखिर, आप तो उनके हिस्से की जमीन की भी देखभाल करते हैं और वे अपनी बीवी – बच्चों के साथ छुट्टियूॅं काटने यहाँ – वहां चले जाते हैं। और एक हम हैं, जो हमेशा यही अटके रहते हैं। यह तो अन्याय है।”
बिधु की आँखों में अब नींद कहाँ?
“आप तो मेरी बात मानिए,” उसकी पत्नी कह रही थी, “जायदाद के बंटवारे की बात चलाइए ताकि हम लोग अलग रह सके। उससे आपको आपने लिए कुछ समय भी मिलेगा।”
फिर तो बिधु के कानों को हर रोज यही बात सुननी पड़ती और बिधु को लगा कि शायद उसकी पत्नी ही सही है। “मेरा काम मेरे भैयों के काम से ज्यादा अहम है। मेरे ही वजह से दोनों इतने ठाठ से, आराम से रहते हैं,” उसने सोचा।
एक रोज जब सब नाश्ता कर रहे थे, बिधु ने माँ और भाइयों से कहा कि उसे जायदाद में से उसका हिस्सा चाहिए।
“क्या कह रहे हो बिधु?” माँ को सुनकर धक्का लगा। “तुम्हारे पिता चाहते थे कि तुम सब मिलजुलकर, एक होकर रहो। यकायक क्या हुआ?”
“अगर बिधु यही चाहता है तो यही सही,” साधु शांत स्वर में बोला।
“ठीक है,” माँ ने हामी भर दी। “लेकिन मेरी एक बात गाँठ बाँध लो, बिधु। कोई भी काम छोटा या बड़ा नही होता। मै मानता हूँ कि खेती – बाड़ी बहुत महत्वपूर्ण और मेहनत का काम है। पर बाकी काम उतने ही महत्वपूर्ण और गौरवपूर्ण होते हैं। इस बात का अहसास तुम्हे जल्दी ही हो जाएगा।”
जमीन – जायदाद के कभी कागज, जिनके आधार पर बंटवारा होना था, तैयार किए गए। बिधु बहुत बढ़ – चढ़कर सब चीज सीख – समझ रहा था, जबकि उसके भाई चुपचाप यह तमाशा देख रहे थे।
एक दिन उनकी माँ बोली, “मेरे बच्चों, किसी भी जरूरी काम को करने से पहले पूरी जाकर भगवान जगन्नाथ के दर्शन करना हमारे परम्परा रही है। कल हम सब लोग वहां चलेंगे और फिर लौटकर बंटवारे का काम सम्पन्न करेंगे।”
बेटों ने बात मान ली और अगले दिन अपनी पत्नियों और माँ के साथ यात्रा पर निकल पड़े।