बुद्धिमान माँ

मंदिर में दर्शन के बाद, वे लौट रहे थे तो माँ ने कहा, “बच्चों, मै बहुत थक गई हूँ और भूख भी लग रही है। आगे चलने से पहले यहाँ बैठकर कुछ खा लेते हैं और आराम भी कर लेते हैं।” गाँव के बाहर ही एक पुराना मंदिर था और पास में ही खाने की दूकान भी थी।

जब तीनों भाई रुपयों की थैली ढूंढने लगे तो थैली नदारद। “ओह,” साधू बोला, “मुझे याद आ रहा है कि मैंने उसे माँ को सौंपा था।”

माँ ने भी थैली को बहुत ढूँढा पर उसका नामोनिशान भी न मिला।

“अब क्या करे?” राधु बोला।

“अब तो एक ही उपाय है,” माँ ने राय दी। “मैं बहुओं के साथ इसी मंदिर में रूकती हूँ। तुम तीनों को गाँव जाकर कुछ काम ढूंढना होगा और कुछ पैसे कमाकर लौटना होगा। पैसे के बिना न तो हम कुछ खा पाएंगे, न घर लौट पाएंगे।”

बेटों ने राय मान ली।

तीनों भाई तीन अलग – अलग दिशाओं में गाँव के लिए निकल पड़े। चलते – चलते बिधु को कुछ लोग मिले जो किसी गंभीर विषय पर बात कर रहे थे। “क्या बात है, मित्रों?”? बिधु ने पूछा। “क्या मैं कुछ मदद कर सकता हूँ?”

“जमीन के इस हिस्से में सदा ही पानी जमा बना रहता है और हम इसमें कुछ भी उगा नही पाते। फिर भी हमे राजा को इसका लगान देना पड़ता है,” एक गाँव वाला बोला।

बिधु कुछ देर सोचकर बोला, “अगर मै आपको यहाँ धान उगाने की तरकीब बताऊँ तो मुझे क्या इनाम मिलेगा?”

“चांदी की सौ मुद्राएं,” गाँव वालों ने ख़ुशी से कहा।

बिधु तो बहुत निपुण किसान था, बोला, “गोबर और मिटटी को मिलाकर उसके गोले बना लो। उन्हें गीला और नरम रखो। फिर हर गोले में बीज डाल दो और उन्हें सूखने दो।”

गाँव वाले बहुत ध्यान से बिधु की बात सुन रहे थे।

“फिर?” उन्होंने पूछा।

“उन गोलों को इस जमीन में डाल दो। गोले जमीन में धंस जाएंगे और बीज भी फुट जाएंगे।”

गाँव वालों ने उसे धन्यवाद दिया और प्रसन्नतापूर्वक सौ मुद्राएं दे दी, जिन्हे देकर बिधु मंदिर लौट आया।

इधर, चलते – चलते राधु ने भी पेड़ के नीचे बैठे के व्यक्ति को देखा, जो काफी दुखी लग रहा था। वैसे तो बहुत सम्पन्न दीखता था पर किसी वजह से परेशान था।

“किस बात की चिंता है, मित्र?” राधु ने पूछा। “तुम उदास दीखते हो। क्या मै तुम्हारे किसी काम आ सकता हूँ?”

“जी, अगर आप कर सके तो,” आदमी ठंडी सांस भरकर बोला, “हम चार भाई हैं,” वह कहने लगा। “मृत्यु से पहले हमारे पिता ने अपनी सारी सम्पत्ति हम चारों में बाँट दी थी। लेकिन एक काली बिल्ली थी जिसे बांटना बहुत मुश्किल था। हमने फैसला किया कि बिल्ली हम सबकी सांझी होगी लेकिन चारों भाई उसकी एक – एक टांग के मालिक होंगे,” कहते हुए वह रुका।

“बहुत अच्छा,” राधु बोला।

“तो…ओ… एक दिन बिल्ली छत से नीचे गिर गई और उसकी वहीँ टांग टूट गई जो मेरे हिस्से आई थी।”

राधु को मामला बहुत रोचक लग रहा था।

मैंने उसकी जख्मी टांग पर तेल में भीगी हुई पट्टी बाँध दी। मेरी बिल्ली को आंच अच्छी लगती थी, सो वह चूल्हे के पास जाकर सो गई।”

“तो तुम इस कारण से इतने दुखी हो?” राधु इस अनोखी कथा का अंत जानने के लिए उत्सुक था।

“यहाँ से तो मेरे दुख की कहानी शुरू होती है। एक चिंगारी उस तेल सने कपड़े पर पड़ी और उसने आग पकड़ ली,” वह रुक गया और राधु की ओर देखने लगा।

“फिर क्या हुआ?”

“वहां से आग आसपास के घरों में फ़ैल गई और सब जलकर राख हो गया। पड़ोसियों ने सारा दोष मेरे सर मढ़ दिया और मामला पंचायत में चला गया।”

“पंचायत में क्या हुआ?”

“पंचों ने कहा कि जिस टांग की वजह से आग लगी, वह मेरे हिस्से की थी, इसलिए पूरा नुक्सान मुझे ही पूरा करना होगा। पर मेरे पास सबको देने लायक पैसे नही हैं।”

राधु वकील था, गहरी सोच में पड़ गया और जल्दी ही समस्या का बहुत सरल – सा हल ढूंढ लिया। उसने कहा, “चिंता न करो, मित्र। यदि मैं तुम्हारी समस्या का समाधान कर दूँ तो मुझे क्या मिलेगा?”

“चांदी के पांच सौ सिक्के,” आदमी बोला।

“तो ठीक है, जाओ और अपने पड़ोसियों और गाँव के बड़े – बूढ़ों को जमा करो। मैं तुम्हे शीघ्र ही मिलता हूँ।”

जब राधु गाँव पहुंचा तो वटवृक्ष के नीचे अच्छी – खासी भीड़ जमा थी।

सबकी बात सुनने के बाद, राधु बोला, “क्या यह सच है कि सारा नुक्सान बिल्ली ने किया है, और यह भी कि इसका कारण उसकी जख्मी टांग पर बंधी हुई पट्टी है…।”

“हाँ, हाँ,” गाँव वालों ने कहा।

“क्या आप मानते हैं कि बिल्ली के भागने की वजह से ही आग लगी और घर जल गए?” राधू ने पूछा।

“हम मानते हैं,” गाँव वाले बोले।

“बिल्ली अपनी जख्मी टांग पर तो भाग नही सकती थी। उसकी तीन टांगें, जो ठीक थी, उनकी वजह से ही वह भाग सकी…,” राधू अपने शब्दों का असर देखने के लिए थोड़ा – सा रुका।

“हाँ, सच है। अपनी तीन ठीक टांगों पर ही वह भाग सकी।”

“तो फिर… पंचायत फैसला करे कि आग लगने का नुक्सान कौन चुकाएगा?”

राधू कि बुद्धि ने सबको अचम्भे में दाल दिया और सभी हामी में अपना सिर हिलाने लगे। फैसला हुआ कि तीन टांगों के मालिक ही हर्जाना भरेंगे। जख्मी टांग का मालिक बहुत खुश हुआ और वादे के मुताबिक़ उसने राधू को चांदी कि पांच सौ मुद्राएं दे दी।

राधू पैसे लेकर मंदिर लौट आया।

इस बीच, साधू – जो सबसे बड़ा था, ने भी चलते एक घर के किसी के रोने की आवाज सुनी। वह घर बहुत बड़ा था और उसके बाहर एक दरबान भी खड़ा था।

“ऐसे आलिशान घर में रहने वाला रो क्यों रहा है? कौन रहता है यहाँ?” उसने दरबान से पूछा।

“श्रीमान, यहाँ राजा के मंत्री महोदय रहते हैं,” दरवान बोला।

“क्या आप मुझे उनके पास ले चलेंगे?”

दरबान मंत्री से आज्ञा लेकर साधू को घर के भीतर ले गया। स्वयं मंत्री महोदय अश्रुपूर्ण हो रहे थे।

“क्या बात है, मन्त्रिवर, साधू ने पुछा। “यदि आप मुझे अपना कष्ट बताएं तो शायद मई कुछ सहायता कर सकूँ।”

“राजा लोग भी अजीब सनकी होते हैं,” मंत्री ने साधू को देखकर और उसके शब्दों से अनुमान लगाया कि वह एक विद्वान पुरुष है। “हमारे राजा ने मुझे उनके हाथी का वजन पता करने के लिए कहा है। अगर मै ऐसा करने में असफल रहा तो मेरा सिर धड़ से अलग करवा दिया जाएगा।” इतना कहकर मंत्री फिर रोने लगा।

कुछ देर सोचने के बाद साधू बोला, “चिंता न करे, पूजयवर। यदि हाथी का वजन पता लगाने में मै आपकी सहायता करूँ तो मेरा पुरस्कार क्या होगा?”

मंत्री तो मंत्री था, उसने भी अपने रुतबे को ध्यान में रखकर जवाब दिया। “एक हजार स्वर्ण मुद्राएं,” वह शान से बोला।

साधू ने मंत्री से कहा कि उस हाथी के पास ले जाए। वहां से हाथी को एक ऐसी नदी के किनारे ले जाया गया, जहाँ बहुत – सी नौकाएं खड़ी थी।

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“कृपया महावत से कहिये कि हाथी को नाव में खड़ा करे,” साधू ने कहा। ऐसा करते ही नौका पानी में धंसने लगी और धंसना रुक गया। “जहाँ तक नौका धंसी है, कृपया वहां निशाँ लगाइए,” उसने वहां खड़े अफसरों से कहा, जो उसे बहुत हैरानी में देख रहे थे। “जब हाथी को बाहर निकालकर, उसे बड़े – बड़े पत्थरों से भर दीजिए और तब तक भरते रहीये, जब तक नाव पुराने लगे हुए निशान तक धंस न जाए,” वह बोला।

ऐसा होते ही, वह बोला, “इन पत्थरों को तौलिये। इनका वजन हाथी के वजन के बराबर होगा।”

मंत्री महोदय इस कदर खुश हुए कि हजार स्वर्ण मुद्राओं के साथ – साथ उन्होंने साधु को कुछ और भी वस्तुएं भेंट दी।

साधू उन्हें लेकर मंदिर लौटा, जहाँ सब लोग उसका इन्तजार कर रहे थे। उन्होंने छककर भोजन किया और चलने की तैयारी करने लगे। तभी माँ ने पैसों की वह गुमी हुई थैली निकालकर अपने बेटों और बहुओं को दिखाई।

“मैंने जानबूझकर इसे छिपा दिया था,” उसका स्वर गंभीर था। “मै तुम्हे सिर्फ यह दिखाना चाहती थी कि हर काम अच्छा है और हर काम का अपना महत्व है। बिधु, मुझे आशा है कि तुम समझ गए होगे कि तुम्हारे भाई भी बहुत कमाते हैं, जो सारे परिवार के भरण – पोषण के काम आते हैं।”

बिधु और उसकी पत्नी को बहुत ग्लानि हुई कि उन्होंने परिवार को बांटने की बात सोची। फिर सब घर लौट आए और कई वर्षों तक एकजुट होकर रहे।

बुद्धिमान माँ को संतोष था कि उसके परिवार में जो छोटी – सी दरार पड़ गई थी, वह अब भर चुकी है।

~ तंगम कृष्णन

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