एक दिन की बात है। सब बच्चे चौके मेँ बैठे थे। उन्हें जोर की भूख लग रही थी। माँ आटा मांड रही थी। वह आटा मेँ पानी थोड़ा – थोड़ा करके दाल रही थी फिर भी पानी कुछ ज्यादा पड़ गया था। आटा इतना गीला हो गया था कि उसकी रोटी नहीँ बनाई जा सकती थी। वह बहुत देर तक बैठी अपने से ही बड़बड़ाती रही। उसका पति बहुत नाराज हुआ। उसे ऐसा लगने लगा कि बिना रोटियां खाए ही काम पर जाना पड़ेगा।
औरत उठकर अंदर गई और मटकियाँ देखने लगी शायद किसी मेँ आटा, बेसन यदि कुछ पड़ा हो। लेकिन कुछ नहीँ मिला। अंत मेँ वह आटा लेने के लिए दुकान पर गई। लाला ने भी आटा उधार देने से मना कर दिया। और ताने मारते हुए दुकानदार ने कहा, “तुझे कौन देगा? पिछला बार छः महीने बाद पैसे दिए थे। मै तो हाथ जोड़ता हूँ एसे ग्राहकोँ से।” पड़ोस मे एक – दो परिवार रहते थे जिनसे उसकी बोलचाल थी। उनके पास जाकर कुछ पैसे उधार मांगे। लेकिन वे भी नाक – मुंह सिकोड़कर रह गई, कुछ नहीँ दिया। वह अपना – सा मुह लिए घर लौट आई।
वह चौके में आकर चुपचाप बैठ गई। बच्चे भी समय कि स्तिथि को समझ गए थे क्योंकि इस तरह की स्तिथियों अक्सर आती रहती थी। वे भूख से अंदर – ही – अंदर कुलबुला रहे थे। लेकिन वे अपनी माँ से डर भी रहे थे। यदि यह कहा कि भूक लगी है, तो पिटाई हो जाएगी। मजदूर कि पत्नी ने सोचा कि चलो, नमकीन लपसी बना लूं लेकिन उसी क्षण उसे याद आया कि लपसी के लिए तो आटा पहले भूनकर लाल कर लेना पड़ता है। इसी बीच मजदूर ने कहा कि मै कोशिश करता हूँ कहीं से कुछ मिल जाए। इतना कहकर वह घर से निकल गया।
उसके जाते ही उसकी पत्नी विचारोँ मेँ खो गई। सोचने लगी अपने बचपन के दिन। इस तरह की कोई परेशानी नहीँ थी घर मेँ। कभी भूखा नहीँ रहना पडा था उसे। हम सब भाई – बहन खूब खेलते थे। हमेशा प्रसन्न रहते थे।
अचानक ध्यान टूटा आह भरकर कहने लगी, “हे भगवान, ‘कंगाली में आटा गीला‘ न करे किसी का।”