अमरकण्टक तीर्थ में सोम शर्मा नाम के एक ब्राह्मण रहते थे। उनकी पत्नी का नाम था सुमना। वह बड़ी साध्वी और पवित्रता थी। उनके कोई पुत्र नहीं था और धन का भी उनके पास अभाव था। पुत्र और धन का अभव के कारण सोम शर्मा बहुत दुखी रहने लगे। एक दिन अपने पति को अत्यन्त चिन्तित देखकर सुमना ने कहा कि ‘प्राणनाथ! आप चिन्ता को छोड़ दिजिये; क्योंकि चिंता के समान दूसरा कोई दुःख नहीं है। स्त्री, पुत्र, और धन की चिन्ता तो कभी करनी ही नहीं चाहिये। इस संसार में ऋणानुबन्ध से अर्थात किसी का ऋण चुकाने के लिये और किसी से ऋण वसूल करने के लिये ही जीव का जन्म होता है। माता, पिता, स्त्री, पुत्र, भाई, मित्र, सेवक आदि लोग अपने-अपने ऋणानुबन्ध से ही इस पृथ्वी पर जन्म लेकर हमें प्राप्त होते हैं। केवल मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी भी ऋणानुबन्ध से ही प्राप्त होते हैं।
‘संसार में शत्रु, मित्र और उदासीन – ऐसे तीन परकार के पुत्र होते हैं। शत्रु स्वभाव वाले पुत्र के दो भेद हैं। पहला किसी ने पूर्व जन्म में दुसरे से ऋण लिया, पर उसको चुकाया नहीं तो दूसरे जन्म में ऋण देने वाला उस ऋणी का पुत्र बनता है। दूसरा, किसी ने पूर्व जन्म में दुसरे के पास अपनी दरोहर रखी, पर जब धरोहर देने का समय आया, तब उसने धरोहर लौटायी नहीं, हड़प लितो दूसरे जन्म में धरोहर का स्वामी उस धरोहर हड़पने वाले का पुत्र बनता है। ये दोनों हीं प्रकार के पुत्र बचपन से माता – पिता के साथ वैर रखते हैं और उसके साथ शत्रु की तरह बर्ताव करते हैं। बड़े होने पर वे माता – पिता की सम्पत्ति को व्यर्थ ही नष्ट कर देते हैं। जब उनका विवाह हो जाता है, तब वे माता – पिता से कहते हैं कि यह घर, खेत आदि सब मेरा है, तुम लोग मुझे मना करने वाले कौन हो? इस तरह वे कई प्रकार से माता – पिता को कष्ट देते हैं। माता – पिता के मृत्यु के बाद वे लिये श्राद्ध – तर्पण आदि भी नहीं करते। मित्रस्वभाव वाला पुत्र बचपन से ही माता – पिता का हितैसी होता है। वह माता – पिता को सदा संतुष्ट रखता है और स्नेह से, मीठी वाणी से उनको सदा प्रसन्न रखने की चेष्टा करता है। माता – पिता की मृत्यु के बाद वह उनके लिये श्रद्धा – तर्पण, तीर्थयात्रा, दान आदि भी करता है। उदासीन स्वभाव वाला पुत्र सदा उदासीन स्वभाव से रहता है। वह न कुछ देता है और न कुछ लेता है। वह न रुष्ट होता है, न संतुष्ट; न सुख देता है, न दुःख*। इस प्रकार जैसे पुत्र तीन प्रकार के होते हैं, ऐसे ही माता, पिता, पत्नी, पुत्र, भाई आदि और नौकर, पड़ोसी, मित्र तथा गाय, भैंस, घोड़े आदि भी तीन प्रकार के (शत्रु, मित्र और उदासीन ) होते हैं। इन सब के साथ हमारा सम्बन्ध ऋणानुबन्ध से ही होता है।’
‘प्रियतम! जिस मनुष्य को जितना धन मिलता है, उसको बिना परिश्रम किये ही उतना धन मिल जाता है और जब धन जाने का समय आता है, तब कितनी ही रक्षा करने पर भी वह चला जाता है – ऐसा समझ कर आपको धन की चिन्ता नहीं करनी चाहिये। वास्तव में धर्म के पालन से ही पुत्र और धन की प्राप्ति होती है। धर्म का आचरण करने वाले मनुष्य ही संसार में सुख पाते हैं। इसलिए आप धर्म का अनुष्ठान करें। जो मनुष्य मन, वाणी और शरीर से धर्म का आचरण करता है, उसके लिये संसार में कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं रहती।’
ऐसा कहने के बाद सुमना ने विस्तार से धर्म का स्वरूप तथा उसके अंगों का वर्णन किया। उसको सुनकर सोम शर्मा ने प्रशन किया कि ‘तुम्हें इन सब गहरी बातों का ज्ञान कैसे हुआ?’ सुमना ने कहा – ‘आप जानते ही हैं कि मेरे पिताजी धर्मात्मा और शास्त्रों के तत्त्व को जानने वाले थे, जिससे साधु लोग भी उनका आदर किया करते थे। वे खुद भी अच्छे-अच्छे संतों के पास जाया करते तथा सत्संग किया करते थे। इस प्रकार सत्संग के प्रभाव से मुझे भी धर्म के तत्त्व का ज्ञान हो गया।’
यह सब सुनकर सोम शर्मा ने पुत्र की प्राप्ति का उपाय पूछा। सुमना ने कहा कि ‘आप महामुनि वसिष्ठजी के पास जायें और उनसे प्रार्थना करें। उनकी कृपा से आपको गुणवान पुत्र की प्राप्ति हो सकती है। ‘पत्नी के ऐसा कहने पर सोम शर्मा वसिष्ठजी के पास गये। उन्होंने वसिष्ठजी से पूछा कि ‘किस पाप के कारण मुझे पुत्र और धन के अभाव का कष्ट भोगना पड़ रहा है?’ वसिष्ठजी ने कहा – ‘पूर्व जन्म में तुम बड़े लोभी थे तथा दूसरों के साथ सदा द्वेष रखते थे। तुमने कभी तीर्थयात्रा, देवपूजन, दान आदि शुभकर्म नहीं किये। श्राद्ध का दिन आने पर तुम घर से बाहर चले जाते थे। धन ही तुम्हारा सब कुछ था। तुमने धर्म को छोड कर धन का ही आश्रय ले रखा था। तुम रात-दिन धन का ही चिन्ता में लगे रहते थे। तुम्हें अरबों-खरबों स्वर्णमुद्राएँ प्राप्त हो गयीं, फिर भी तुम्हारी तृष्णा कम नहीं हुई, प्रत्युत बढती रही। तुमने जीवन में जितना धन कमाया, वह सब जमीन में गाड़ दिया। स्त्री और पुत्र पूछते ही रह गये; किंतु तुमने उनको न तो धन दिया और न ही धन का पता बताया। धन के लोभ में आकर तुमने पुत्र का स्नेह भी छोड़ दिया। इन्हीं कर्मों के करण तुम इस जन्म में दरिद्र और पुत्रहीन हुए हो। हाँ, एक बार तुमने घर पर अतिथि – रूप से आये एक विष्णु भक्त और धर्मात्मा ब्राह्मण की प्रसन्नतापूर्वक सेवा की। उसके साथ तुमने अपनी स्त्री सहित एकादशी व्रत रखा और भगवान विष्णु का पूजन भी किया। इस कारण तुम्हें उत्तम ब्राह्मण वंश में जन्म मिला है। विप्रवर! उत्तम स्त्री, पुत्र, कुल, राज्य, सुख, मोक्ष आदि दुर्लभ वस्तुओं की प्राप्ति भगवान विष्णु की कृपा से ही होती है। अत: तुम भगवान विष्णु की ही शरण में जाओ और उन्हीं का भजन करो।’
वसिष्ठजी के द्वारा इस प्रकार समझाये जाने पर सोमशर्मा अपनी स्त्री सुमना के साथ बड़ी तत्परता से भगवान के भजन में लग गये। उठते, बैठते, चलते, सोते आदि सब समय में उनकी दृष्टि भगवान की तरफ ही रहने लगी। बड़े -बड़े विघ्न आने पर भी वे अपने साधन से विचलित नही हुए। इस प्रकार उनकी लगन को देखकर भगवान उनके सामने प्रकट हो गये। भगवान के वरदान से उनको मनुष्य लोक के उत्तम भोगों की भग्वाद्क्था तथा धर्मात्मा पुत्र की प्राप्ति हो गयी।
सोमशर्मा के पुत्र का नाम सुव्रत था। सुव्रत बचपन से ही भगवान का अनन्य भक्त था। खेल खेलते समय भी उसका मन भगवान विष्णु के ध्यान में लगा रहता था। जब माता सुमना उससे कहती कि ‘बेटा! तुझे भूख लगी होगी, कुछ खा ले’ तब वह कहता कि ‘माँ भगवान का ध्यान महान अमृत के समान है, मैं तो उसी से तृप्त रहता हूँ!’ जब उसके सामने मिठाई आती तो वह उसको भगवान को ही अर्पण कर देता और कहता कि ‘इस अन्न से भगवान तृप्त हों।’ जब वह सोने लगता, तब भगवान का चिन्तन करते हुए कहता कि ‘मैं योगनिद्रापरायण भगवान कृष्ण की शरण लेता हूँ।’ इस प्रकार भोजन करते, वस्त्र पहनते, बैठते और सोते समय भी वह भगवान के चिन्तन में लगा रहता। युवावस्था आने पर भी वह भोगों असक्त नहीं हुआ, प्रत्युत भोगों का त्याग करके सर्वथा भगवान के भजन में ही लग गया। उसकी ऐसी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु उसके सामने प्रकट हो गये। भगवान ने उससे वर मांगने के लिये कहा तो वह बोला – ‘श्रीकृष्ण! अगर आप मेरे पर प्रसन्न हैं तो मेरे माता – पिता को सशरीर अपने परमधाम में पहुँचा दें और मेरे साथ मेरी पत्नी को भी अपने लोक में ले चलें।’ भगवान ने सुव्रत की भक्ति से संतुष्ट होकर उसको उत्तम वरदान दे दिया। इस प्रकार पुत्र की भक्ति के प्रभाव से सोमशर्मा और सुमना भी भगवद्धाम को प्राप्त हो गये।
इस कथा में विशेष बात यह आयी है कि संसार में किसी का ऋण चुकाने के लिये और किसी से ऋण वसूल करने के लिये ही जन्म होता है; क्योंकि जीव ने अनेक लोगों से लिया है और अनेक लोगों को दिया है। लेन-देन का यह व्यवहार अनेक जन्मों से चला आ रहा है और इसको बंद किये बिना जन्म-मरण से छुटकारा नहीं मिल सकता।
संसार में जिनसे हमारा सम्बन्ध होता है, वे माता, पिता, स्त्री, पुत्र, तथा पशु-पक्षी आदि सब लेन-देन के लिये ही आये हैं। अत: मनुष्य को चाहिये कि वह उनमें मोह-ममता न करके अपने कर्तव्य का पालन करे अर्थात उनकी सेवा करे, उन्हें यथाशक्ति सुख पहुँचाये। यहाँ यह संका हो सकती है कि अगर हम दुसरे के साथ शत्रुता का बर्ताव करते हैं तो इसका दोष हमे क्यों लगता है; क्योंकि हम तो ऐसा व्यवहार पूर्वजन्म के ऋणानुबन्ध से ही करते हैं? इसका समाधान यह है कि मनुष्य शरीर विवेक प्रधान है। अत: अपने विवेक को महत्व देकर हमारे साथ बुरा व्यवहार करने वाले को हम माफ़ कर सकते हैं और बदले में उससे अच्छा व्यवहार कर सकते हैं*। मनुष्य बदला लेने के लिये नहीं है, प्रत्युत जन्म-मरण से सदा के लिये मुक्त होने के लिये है। अगर हम पूर्व जन्म के ऋणानुबन्ध से लेन-देन का व्यवहार करते रहेंगे तो हम कभी जन्म – मरण से मुक्त हो ही नहीं सकेंगे। लेन-देन के इस व्यवहार को बंद करने का उपाय है – नि:स्वार्थ भाव से दूसरों के लिये कर्म करना। दूसरों के हित के लिये कर्म करने से पुराना ऋण समाप्त हो जाता है और बदले में कुछ न चाहने से नया ऋण उत्त्पन्न नहीं होता। इस प्रकार ऋण से मुक्त होने पर मनुष्य जन्म-मरण से छुट जाता है।
अगर मनुष्य भक्त सुवत की तरह सब प्रकार से भगवान के ही भजन में लग जाय तो उसके सभी ऋण समाप्त हो जाते हैं अर्थात वह किसी का भी ऋणी नहीं रहता।* भगवद्धजन के प्रभाव से वह सभी ऋणों से मुक्त होकर सदा के लिये जन्म-मरण के चक्र से छुट जाता है और भगवान के परमधाम को प्राप्त हो जाता है।