रूपनगढ़ की राजकुमारी - वीर राजपूत नारी की लोक कथा

रूपनगढ़ की राजकुमारी: वीर राजपूत नारी की लोक कथा

रूपनगढ़ की राजकुमारी: वीर राजपूत नारी की लोक कथा – ‘अपनी कन्या को शाही बेगम बनने के लिये तुरंत दिल्ली भेज दो!’ औरंगजेब के इस संदेश के साथ दिल्ली से एक सेना भी रूपनगढ़ के राजा विक्रम सोलंकी के पास पहुँची। अनेक राजपूत नरेशों ने अपनी कन्याएँ दिल्ली को भेज दी थीं। विरोध करने में केवल सर्वनाश ही था। कोई मार्ग न देखकर राजा प्रस्तुत हो गये। राजकुमारी को भी समाचार मिला। वे इससे अत्यन्त दुखी हो गयीं।

राजकुमारी मन-ही-मन चितौड़ के राणा राजसिंह की पूजा करती थी। कारण यह था कि एक दिन रूपनगढ़ के जनाना महल में किसी मुसलमान बिसातिन ने रानियों तथा राजकन्याओं को महाराणा प्रताप, अमरसिंह , शाहजहाँ, अकबर, जहाँगीर आदि के चित्र दिखाने के साथ ही राणा राजसिंह का चित्र भी दिखलाया था। राजकुमारी का चित्त उस दिव्य चित्र पर लग गया। इतने में बिसातिन ने औरंगजेब का चित्र दिखलाया। सखियाँ उस चित्र को देखकर हँसने लगीं। हँसी-हँसी में चीत्र जमीन पर गिर कर टूट गया। इस पर बिसातिन ने कहा कि ‘शाहजहाँ’ के चित्र का इतना अपमान किया गया है, यह अच्छा नहीं हुआ। बादशाहों को पता लगेगा तो रूपनगढ़ के किले की ईट भी नहीं बचेगी।’ राजकुमारी यह सुनकर तड़क उठी और उसने चित्र का दाम उसकी ओर फेंककर कहा कि ‘सब बारी-बारी इस चित्र पर एक-एक लात मरो।’ सहेलियों ने आदेश का पालन किया। बिसातिन को यह बहुत बुरा लगा और उसने दिल्ली पहुँचकर ये सारी बातें महल की बेगमों की मारफत औरंगजेब के पास पहुँचा दीं। वह तो हिंदू-राज्यों को तहस-नहस करने का बहाना खोजा ही करता था। आगबबूला हो उठा और उसने उसी क्षण रूपनगढ़ के राजा को राजकुमारी को देने के लिये सूचना भेज दी।

एकान्त में राजकुमारी ने पिता से रोते हुए प्रार्थना की। ‘पिताजी! अन्तत: आपने यह क्या सोचा। पवित्र राजपूत कुल में जन्म लेकर मैं मुगलानी बनूँगी? आपको अपनी कन्या यवन को देते लज्जा नहीं प्रतीत होती? देव-पूजा के योग्य पुष्प क्या पिशाच के पैरों से कुचला जायगा?’

‘पुत्री! आज अपने से बहुत ऊँचे-ऊँचे राजघरानों की कन्याएँ बादशाह की बेगमें हैं। जोधपुर की कन्या जिस स्थान पर है, वहाँ मेरी पुत्री पहुँचेगी – यह तो अपमान की बात नहीं है। तू साम्राज्ञी होगी। अपना छोटा-सा राज्य है। इतना गौरव अपने को मिल रहा है। तू व्यर्थ क्यों दुखी होती है।’ नरेश जानते थे कि वे आत्मवच्य्ना कर रहे हैं।

‘मेरे भाग्य में कोई वीर राजपूत न हो तो मैं कुमारी रह लूँगी। आप वीर राजपूत होकर ऐसी बात क्यों कहते हैं? इस नरक-कुण्ड में भेजने के बदले मुझे चिता में क्यों नहीं डाल देते। ऊँचे कुल और बड़े राज्यों का सौभाग्य उन्हीं के समीप रहे। बाहरी सम्पत्ति ही श्रेष्ठता नहीं है। धर्म ही श्रेष्ठ है। राज्य क्या बड़ा और क्या छोटा। राजपूत का गौरव उसकी शूरता और आन है। मुझे बादशाह का वैभव नहीं चाहिये। दूसरों की भाँति आप अपने वंश को कलंक न लगावें। मैं धनी-मानी यवन के राजमहल के बदले गरीब राजपूत की टूटी झोंपड़ी में जाना श्रेष्ठ मानती हूँ।’ राजकन्या ने बड़े ओजस्वी स्वर में पिता को उत्तर दिया।

‘मैं तुम्हारी बात समझता हूँ, तुम्हारे कष्ट का भी मुझे पता है; पर मैं विवश हूँ। बादशाह के सम्मुख मेरी शक्ति नगण्य है। मैं विरोध भी करूँ तो बादशाह बलपूर्वक तुम्हें ले जायेंगे। इस व्यर्थ के सर्वनाश से बचने के लिये मैं ऐसा कर रहा हूँ।’ नरेश के नेत्र भर आये। अधिक छिपाना वश में नहीं था।

‘क्षत्राणी को बलपूर्वक अधर्म में लगाने की शक्ति दिल्ली तो क्या, देवताओं की सेना में भी नहीं। अग्नि, विष और तलवार – ये तीन क्षत्रियां की नित्य सहचरियाँ हैं। इनकी सहायता से सदा राजपूत-महिलाओं ने आत्मरक्षा की है। मुगलों का सामना करने की शक्ति आपमें नहीं है तो अपनी रक्षा कर लेने की शक्ति मुझमें है।’ राजकुमारी आवेश में खड़ी हो गयीं।

‘धर्म-रक्षा के लिये पुत्री की मृत्यु से राजपूत कभी दुखी नहीं होता। तुम्हारे मरने से मुझे कष्ट नहीं होगा। मैं गौरव का अनुभव करूँगा कि मेरी कन्या इतनी पवित्र थी। किंतु तुम्हारे मरने का समाचार पाकर बादशाह रुष्ट हो जाएंगे। वे यही समझेंगे कि उन्हें कन्या न देकर मैंने मार डाला है। अपमान समझकर वे आक्रमण करेंगे। यदि तुम्हें जन्मभूमि को ध्वंस करना हो तो यही करो।’ नरेश ने निति का आश्रय लिया।

रूपनगढ़ की राजकुमारी - वीर राजपूत नारी की लोक कथा‘आप मुझे यवन-सेना के साथ भेज दें।’ राजकुमारी ने निश्चय कर लिया कि वे मार्ग में अपघात करेंगी। पिता के पास से लौटकर वे अनेक चिंताओं में तल्लीन हो गयीं। अन्त में उनके मुख पर आशा की एक रेखा आयी। बड़े उत्साह से उन्होंने एक पत्र लिखा। राजकुमारी का पत्र लेकर एक विश्र्वस्त घुड़सवार उदयपुर पहुँचा। उसने आदरपूर्वक महाराज राजसिंह को पत्र दिया।

‘महाराणा! आप राजपूतों के गौरव हैं। आपके पूर्वजों ने धर्म-रक्षा के लिये सर्वस्व न्योछावर कर दिया है। विपत्ति में पड़ी एक राजपूत-बालिका आपकी शरण है। धर्म तथा राजपूतों की आन के रक्षक क्या विपत्ति में पड़ी एक बलिका की रक्षा न करेंगे? आप मेरी उपेक्षा कर देंगे? सदा से राजपूतों के सम्मान का रक्षण करनेवालों के वंशज होकर आप एक राजपूत-कन्या का अपमान सह लेंगे? मेरे लिये इससे बड़ी विपत्ति और क्या होगी, इसी से मैं आपसे रक्षा की याचना करती हूँ। मेवाड़ के अधिपति के जीवित रहते एक राजपूत कन्या अनिच्छापूर्वक दिल्ली के मुगल की बेगम बनायी जायगी? सोच लीजिये – बड़ी प्रबल शक्ति से शत्रुता मोल लेनी है। प्राणों पर खेलना है। बदले में कुछ मिलेगा नहीं। मैं एक दरिद्र लडकी हूँ। आपके चरणों में अपने-आपको चढ़ा देने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है मेरे पास। भुजाओं में शक्ति न हो तो रहने दीजिये। दुराचारी यवनों से रक्षा करने में यदि आप कायर हो जाएँगे तो विष मेरे पास है। मैं अपनी रक्षा कर लूँगी। आज भी आपकी तलवार म्यान में रहे तो वह म्यान में ही रहने योग्य होगी।’ राजसिंह ने पत्र पढ़ा। नेत्र अंगारे हो उठे। होठ फड़कने लगे।

‘राजकुमारी से कहना, प्रताप के वंशज में अभी उनका रक्त है। ये निश्चित रहें।’ राजसिंह ने दूत को उसी समय विदा कर दिया। सेना को सज्जित होने की आज्ञा दी गयी। रूपनगढ़ से दिल्ली मार्ग में एक पर्वतीय स्थान में राजसिंह ने सेना व्यवस्थित की। राजकुमारी यवन-सेना के साथ चलीं। पालकी में बैठे रहने पर भी उनके नेत्र सदा बाहर किसी का अन्वेषण करते रहते थे। पहाड़ी स्थल पर पहुँचते ही राजसिंह ने अकस्मात आक्रमण कर दिया। मुगल सैनिक तितर-बितर होकर भाग गये। समाचार पाकर औरंगजेब ने चढाई की। वर्ष 1680 में बादशाह को राजसिंह के द्वारा पराजित होकर लौटना पड़ा। रूपनगढ़ की राजकुमारी मेवाड़ की महारानी हुई।

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