‘हम मृत्यु से नहीं डरते, कभी नहीं छोड़ेंगे अपना धर्म’: साहिबजादों के साथ वजीर खान की क्रूरता, चल बसी थीं माता गुजरी देवी भी
उसने दोनों साहिबजादों के समक्ष शर्त रखी कि वो इस्लाम अपना लें, लेकिन उन्होंने ऐसा करने से इनकार कर दिया। वजीर खान ने उन दोनों को ज़िंदा दीवार में चुनवाने का आदेश दिया। दोनों छोटे बच्चों ने कहा कि वो अपना धर्म कभी नहीं छोड़ सकते।
सिखों के अंतिम गुरु गोविंद सिंह और उनके चार सहिजबजादों के बलिदान का राष्ट्र आज भी ऋणी है। उनके बेटों जुझार सिंह और जोरावर सिंह को मुग़ल फ़ौज के सेनापति वजीर खान ने दीवार में ज़िंदा चुनवा दिया था। इस बलिदान को याद करते हुए हम हर वर्ष 27 दिसंबर को ‘साहिबजादा दिवस‘ मनाते हैं। उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने हर विद्यालयों में इस दिन कार्यक्रम कर के बच्चों को इस इतिहास के बारे में बताने का प्रण लिया है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ खुद इस अवसर पर आयोजित सिख कार्यक्रम में हिस्सा लेते हैं।
गुरु गोविंद सिंह के पीछे हाथ धो कर पड़ा था मुग़ल सूबेदार वजीर खान
यहाँ हम आपको माता गुजरी देवी और चार साहिबजादों का के बारे में बताएँगे, लेकिन उससे पहले ‘खालसा पंथ‘ की स्थापना करने वाले गुरु गोविंद सिंह का संक्षिप्त परिचय। सिखों के दसवें गुरु गोविंद सिंह ने सिर्फ एक संत एवं दार्शनिक, बल्कि एक कुशल योद्धा भी थे जिन्होंने क्रूर मुग़ल बादशाह औरंगजेब के विरुद्ध कई युद्ध लड़े। उनके पिता गुरु तेग बहादुर की औरंगजेब ने ही हत्या करवाई थी। इस कारण मात्र 9 वर्ष की उम्र में गोविंद सिंह को गुरु की पदवी संभालनी पड़ी।
औरंगजेब ने उनके पीछे वजीर खान को लगाया था। उसे सरहिंद का सूबेदार बना कर भेजा गया था और सिखों का दमन करने के लिए खुली छूट दी गई थी। गुरु गोविंद सिंह को उसके साथ कई युद्ध लड़ने पड़े। सतलुज से लेकर यमुना नदी के बीच के पूरे क्षेत्र पर वजीर खान का ही शासन चलता था। उसने गुरु गोविंद सिंह के 5 और 8 वर्षीय बेटों साहिबजादा फ़तेह सिंह और साहिबजादा जोरावर सिंह को उसने ज़िंदा पकड़ लिया था। इस्लाम न अपनाने पर उसने दोनों को ही दीवार में ज़िंदा चुनवा दिया था।
ये भी एक संयोग ही है कि वजीर खान का संहार करने वाले सिख योद्धा का नाम भी फ़तेह सिंह ही था, जो बन्दा सिंह बहादुर की सेना में थे। उन्होंने वजीर खान का सिर धड़ से अलग कर दिया था। इसे ‘चप्पर-चिड़ी’ के युद्ध के रूप में जाना जाता है। मई 1710 में सिखों ने वजीर खान को उसके किए की सज़ा दी थी। गुरु गोविंद सिंह ने सन् 1688 में भंगानी के युद्ध से लेकर 1705 ईस्वी में मुक्तसर के युद्ध तक दर्जनों युद्ध लड़े। उन्होंने अपने परिवार का बलिदान दे दिया लेकिन मुगलों के सामने झुके नहीं।
गुरु गोविंद सिंह की सिख सेना की लड़ाई मुगलों के साथ-साथ पहाड़ी राजाओं के साथ भी थी। चमकौर के युद्ध में सिख सेना का काफी नुक़सान हुआ था, लेकिन मुगलों पर वो भारी पड़े थे। बौखलाए औरंगजेब ने वजीर खान और जबरदस्त खान के नेतृत्व में एक विशाल फ़ौज को सिखों को कुचलने के लिए भेजा। सरहिंद, लाहौर और जम्मू के सूबेदारों के अलावा लगभग दो दर्जन पहाड़ी राजाओं के साथ गठबंधन कर के औरंगजेब ने एक बड़ी फ़ौज तैयार की और गुरु गोविंद सिंह को पकड़ने के लिए आनंदपुर साहिब भेजा।
कुरान की कसम खा कर भी पलट गए मुग़ल, गुरु पर किया हमला
गुरु गोविंद सिंह भी इस युद्ध के लिए तैयार थे और संख्या में कम होने के बावजूद खालसा सेना ने मुगलों के दाँत खट्टे कर दिए। शुरुआती झड़पों में मुगलों को अपनी पराजय स्पष्ट दिख रही थी। इसके बाद मुग़ल फ़ौज ने आनंदपुर साहिब को चारों ओर से घेर कर रसद-पानी की किल्लत पैदा कर दी। बाहर से क्षेत्र का सम्बन्ध टूटने के कारण भोजन-पानी का अभाव हो गया। मुगलों ने इस दौरान संधि का प्रस्ताव दिया और कहा कि अगर गुरु गोविंद सिंह दुर्ग छोड़ देते हैं तो उन्हें और उनके परिवार को सुरक्षित निकलने के लिए रास्ता दिया जाएगा।
इसके लिए मुग़ल सूबेदारों ने कुरान तक की कसम खाई। हालाँकि, उनमें कुछ सिख सैनिक ऐसे भी थे जो दुर्ग छोड़ कर चले गए लेकिन गुरु गोविंद सिंह ने पहले ही शर्त रख दी थी अगर वो ऐसा करते हैं तो गुरु-शिष्य का रिश्ता नहीं रहेगा। लगभग आठ महीने के समय तक आनंदपुर साहिब को मुगलों ने घेरे रखा। अंत में सिख सेना ने गुरु गोविंद सिंह, उनकी माँ गुजरी देवी और चारों साहिबजादों (अजीत सिंह, जुझार सिंह, जोरावर सिंह और फ़तेह सिंह) के साथ दुर्ग छोड़ने की योजना बनाई।
वो 21 दिसंबर, 1704 की रात थी। यही वो दिन था, जब मुगलों ने कुरान की सौगंध को धता बताते हुए खालसा सेना पर आक्रमण कर दिया। स्थान था सरसा नदी का तट। मौसम था ठंड और बारिश का। ऐसे कठिन समय में भी अजीत सिंह (19) और जुझार सिंह (14) को लेकर गुरु गोविंद सिंह किसी तरह चमकौर की गढ़ी तक पहुँचने में कामयाब रहे, लेकिन परिवार के बाकी लोग उनसे बिछुड़ गए। जोरावर सिंह और फ़तेह सिंह के साथ उनकी दादी थीं, माँ गुजरी देवी।
गुरु गोविंद सिंह का एक पुराना रसोइया था, जिसके गाँव में जाकर इन तीनों ने शरण ली। लेकिन, उसने विश्वासघात किया और दोनों बच्चों को वजीर खान को सौंप दिया। क्रूर वजीर खान ने इन दोनों को गिरफ्तार कर लिया। उसने दोनों साहिबजादों के समक्ष शर्त रखी कि वो इस्लाम अपना लें, लेकिन उन्होंने ऐसा करने से इनकार कर दिया। वजीर खान ने उन दोनों को ज़िंदा दीवार में चुनवाने का आदेश दिया। दोनों छोटे बच्चों ने कहा कि वो अपना धर्म कभी नहीं छोड़ सकते।
इस दौरान उन्होंने अपने दादा गुरु तेग बहादुर के बलिदान को भी याद किया और कहा कि हम गुरु गोविंद सिंह के पुत्र हैं, जो अपना धर्म कभी नहीं छोड़ सकते। असल में पहले वजीर खान ने इन दोनों बच्चों को दीवार में चुनवाने के लिए मलेरकोटला के नवाब को सौंपना चाहा, जिसका भाई सिखों के साथ युद्ध में मारा गया था। लेकिन, उसने ऐसा करने से इनकार करते हुए कहा कि उस युद्ध में इन दोनों बालकों का क्या दोष? वजीर खान को लगा था कि वो बदले की आग में जल रहा होगा।
दोनों साहिबजादों में जोरावर सिंह बड़े थे। जब दीवार ऊपर उठने लगी तो उनकी आँखों में आँसू आ गए। इस पर छोटे भाई ने पूछा कि क्या वो बलिदान देने से डर गए, इसीलिए रो रहे हैं? जोरावर सिंह ने जवाब दिया कि ऐसी बात नहीं हैं। वो तो ये सोच कर दुःखी हैं कि छोटा होने के कारण फ़तेह सिंह की दीवार में पहले समा जाएँगे और उनकी मृत्यु पहले हो जाएगी। उन्होंने कहा कि दुःख यही है कि मेरे से पहले बलिदान होने का अवसर तुम्हें मिल रहा है। उन्होंने कहा कि मैं मौत से नहीं डरता, वो मुझसे डरती है।
जानिए और क्या हुआ था आनंदपुर साहिब के युद्ध में, जिसके बाद हुआ चार साहिबजादों का बलिदान
किसी युद्ध में बच्चों के साथ इस तरह की अमानवीयता का उदाहरण पहले शायद ही कहीं मिलता है। फिर चमकौर की गढ़ी में भी युद्ध हुआ, जिसमें वीरता का प्रदर्शन करते हुए गुरु गोविंद सिंह के बाकी दोनों बेटों अजीत सिंह और जुझार सिंह का भी निधन हो गया। एक और बात जानने लायक है कि जिन 40 सिखों ने आनंदपुर साहिब छोड़ा था, बाद में उन्होंने सिखों को गुरु के पीछे संगठित करने में बड़ी भूमिका निभाई और अपने प्राण देकर प्रायश्चित किया।
यही युद्ध वो समय था, जब औरंगजेब ने गुरु गोविंद सिंह में दिलचस्पी ली और युद्ध के मैदान में सिखों के लाभकारी स्थिति में होने की बात कही। उसने गुरु गोविंद सिंह के व्यक्तित्व से लेकर उनके युद्ध कौशल के बारे में भी जानकारियाँ जुटाई। मुग़ल सैनिकों ने जब गुरु की प्रशंसा की तो औरंगजेब ने उन्हें अपने समक्ष पेश किए जाने का आदेश दे डाला। युद्ध में जब दूर-दूर से सिख पहुँचे तो वो खुश थे और एक-दूसरे को बधाई दे रहे थे कि उन्हें गुरु और धर्म के लिए मृत्यु के वरण का मौका मिल रहा है।
ये सही बात थी कि आनंदपुर साहिब ऊँची जगह पर था और सिख सेना को मुगलों की गतिविधियों का पता चल रहा था, लेकिन वो खुले में भी थे और युद्ध के दौरान गड्ढे में भी गिर रहे थे। गुरु गोविंद सिंह ने मुगलों की तरफ तोप से वार का आदेश दिया, जिसके बाद मुग़ल फ़ौज उन हथियारों को जब्त करने के लिए आगे बढ़ीं। लेकिन, सिखों की गरजती बंदूकों ने उन्हें रोक दिया। फिर तीरों की बौछाड़ हुई और मुगलों के घोड़े और फौजी एक-दूसरे के ऊपर ही गिरने लगे।
The now demolished building of Fatehgarh Sahib, photographed in the 1960s. The site marks the spot where the two younger sons of Guru Gobind Singh (Sahibzada Fateh Singh, age 6 Sahibzada Zorawar Singh, age 9) were bricked alive @ the orders of Nawab Wazir Khan of Sirhind in 1703 pic.twitter.com/esgqBv0maH
— Learn Punjabi (@learnpunjabi) December 25, 2021
मुगलों को लगता था कि किले में होने के कारण सिखों को फायदा है। सिखों की दो बड़ी तोपें गरजी और मुग़ल फ़ौज सहित पहाड़ी राजा भी भाग खड़े हुए। उस दिन सिखों की जीत हुई। यही वो दिन था, जब बौखलाए मुगलों ने आनंदपुर साहिब आने-जाने के रास्तों को बंद करने का फैसला लिया। गुरु गोविंद सिंह की माँ भी सैनिकों की हालत देखते हुए किले को छोड़ने के पक्ष में थीं। कहते हैं, अपने दोनों पोतों की मृत्यु की खबर सुनते ही उन्हें ऐसा सदमा लगा था कि उनका भी निधन हो गया था।
यही कारण है कि दिसंबर महीने का सिख पंथ में एक अलग स्थान है। चमकौर के युद्ध में तो अंतिम सिख सैनिक भी बलिदान हो गया था लेकिन लड़ता रहा था। इस तरह गुरु गोविंद सिंह के चारों बेटों और माँ का बलिदान हुआ, लेकिन सिख सेना ने उन्हें किसी तरह बचाए रखा। इसके बाद ही वजीर खान को अपनी क्रूरता के कारण डर का एहसास होने लगा था। क्या आपको पता है कि वजीर खान ने दोनों साहिबजादों को उतने ठंड में भी एक ठंडी जगह पर रखा हुआ था।
ये चार साहिबजादों का बलिदान ही था कि आगे के सिखों में वीरता और बहादुरी कई गुनी हो गई और उनका साहस आसमान छूने लगा। बाबा बंदा सिंह बहादुर महाराष्ट्र के नांदेड़ से पंजाब आए, ताकि वो इस क्रूर नरसंहार का बदला ले सकें। सरहिंद में मुगलों को सज़ा दी गई, वजीर खान मारा गया और इलाका सिखों के कब्जे में आ गया। इसी बलिदान का परिणाम था कि आगे चल कर महाराजा रणजीत सिंह के नेतृत्व में एक बड़े सिख साम्राज्य का उदय हुआ था।