वन्दे मातरम की कहानी
ये वन्दे मातरम नाम का जो गान है जिसे हम राष्ट्रगीत के रूप में जानते हैं उसे बंकिम चन्द्र चटर्जी (बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय) ने 7 नवम्बर 1875 को लिखा था।
बंकिम चन्द्र चटर्जी बहुत ही क्रन्तिकारी विचारधारा के व्यक्ति थे। देश के साथ-साथ पुरे बंगाल में उस समय अंग्रेजों के खिलाफ जबरदस्त आन्दोलन चल रहा था और एक बार ऐसे ही विरोध आन्दोलन में भाग लेते समय इन्हें बहुत चोट लगी और बहुत से उनके दोस्तों की मृत्यु भी हो गयी। इस एक घटना ने उनके मन में ऐसा गहरा घाव किया कि उन्होंने आजीवन अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने का संकल्प ले लिया उन्होंने।
बाद में उन्होंने एक उपन्यास लिखा जिसका नाम था “आनंदमठ“, जिसमे उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ बहुत कुछ लिखा, उन्होंने बताया कि अंग्रेज देश को कैसे लुट रहे हैं, ईस्ट इंडिया कंपनी भारत से कितना पैसा ले के जा रही है, भारत के लोगों को वो कैसे मुर्ख बना रहे हैं, ये सब बातें उन्होंने उस किताब में लिखी। वो उपन्यास उन्होंने जब लिखा तब अंग्रेजी सरकार ने उसे प्रतिबंधित कर दिया।
जिस प्रेस में छपने के लिए वो गया वहां अंग्रेजों ने ताला लगवा दिया। तो बंकिम दा ने उस उपन्यास को कई टुकड़ों में बांटा और अलग-अलग जगह उसे छपवाया औए फिर सब को जोड़ के प्रकाशित करवाया। अंग्रेजों ने उन सभी प्रतियों को जलवा दिया फिर छपा और फिर जला दिया गया, ऐसे करते करते सात वर्ष के बाद 1882 में वो ठीक से छ्प के बाजार में आया और उसमे उन्होंने जो कुछ भी लिखा उसने पुरे देश में एक लहर पैदा किया।
शुरू में तो ये बंगला में लिखा गया था, उसके बाद ये हिंदी में अनुवादित हुआ और उसके बाद, मराठी, गुजराती और अन्य भारतीय भाषाओँ में ये छपी और वो भारत की ऐसी पुस्तक बन गया जिसे रखना हर क्रन्तिकारी के लिए गौरव की बात हो गयी थी। इसी पुस्तक में उन्होंने जगह जगह वन्दे मातरम का घोष किया है और ये उनकी भावना थी कि लोग भी ऐसा करेंगे।
बंकिम बाबु की एक बेटी थी जो ये कहती थी कि आपने इसमें बहुत कठिन शब्द डाले है और ये लोगों को पसंद नहीं आयेगी तो बंकिम बाबु कहते थे कि अभी तुमको शायद समझ में नहीं आ रहा है लेकिन ये गान कुछ दिन में देश के हर जबान पर होगा, लोगों में जज्बा पैदा करेगा और ये एक दिन इस देश का राष्ट्रगान बनेगा।
ये गान देश का राष्ट्रगान बना लेकिन ये देखने के लिए बंकिम बाबु जिन्दा नहीं थे लेकिन जो उनकी सोच थी वो बिलकुल सही साबित हुई। 1905 में ये वन्दे मातरम इस देश का राष्ट्रगान बन गया। 1905 में क्या हुआ था कि अंग्रेजों की सरकार ने बंगाल का बटवारा कर दिया था। अंग्रेजों का एक अधिकारी था कर्जन जिसने बंगाल को दो हिस्सों में बाट दिया था, एक पूर्वी बंगाल और एक पश्चिमी बंगाल। इस बटवारे का सबसे बड़ा दुर्भाग्य ये था कि ये धर्म के नाम पर हुआ था, पूर्वी बंगाल मुसलमानों के लिए था और पश्चिमी बंगाल हिन्दुओं के लिए, इसी को हमारे देश में बंग-भंग के नाम से जाना जाता है।
ये देश में धर्म के नाम पर पहला बटवारा था उसके पहले कभी भी इस देश में ऐसा नहीं हुआ था, मुसलमान शासकों के समय भी ऐसा नहीं हुआ था । खैर… इस बंगाल बटवारे का पुरे देश में जम के विरोध हुआ था, उस समय देश के तीन बड़े क्रांतिकारियों लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय और बिपिन चन्द्र पाल ने इसका जम के विरोध किया और इस विरोध के लिए उन्होंने वन्दे मातरम को आधार बनाया। और 1905 से हर सभा में, हर कार्यक्रम में ये वन्देमातरम गाया जाने लगा। कार्यक्रम के शुरू में भी और अंत में भी। धीरे धीरे ये इतना प्रचलित हुआ कि अंग्रेज सरकार इस वन्दे मातरम से चिढने लगी। अंग्रेज जहाँ इस गीत को सुनते, बंद करा देते थे और और गाने वालों को जेल में डाल देते थे, इससे भारत के क्रांतिकारियों को और ज्यादा जोश आता था और वो इसे और जोश से गाते थे।
एक क्रन्तिकारी थे इस देश में जिनका नाम था खुदीराम बोस, ये पहले क्रन्तिकारी थे जिन्हें सबसे कम उम्र में फाँसी की सजा दी गयी थी। मात्र 14 साल की उम्र में उसे फाँसी के फंदे पर लटकाया गया था और हुआ ये कि जब खुदीराम बोस को फाँसी के फंदे पर लटकाया जा रहा था तो उन्होंने फाँसी के फंदे को अपने गले में वन्दे मातरम कहते हुए पहना था। इस एक घटना ने इस गीत को और लोकप्रिय कर दिया था और इस घटना के बाद जितने भी क्रन्तिकारी हुए उन सब ने जहाँ मौका मिला वहीं ये घोष करना शुरू किया चाहे वो भगत सिंह हों, राजगुरु हों, अशफाकुल्लाह हों, चंद्रशेखर हों सब के जबान पर मंत्र हुआ करता था। ये वन्दे मातरम इतना आगे बढ़ा कि आज इसे देश का बच्चा बच्चा जानता है।