स्नान करने के लिए कुश और तिल के लेप का प्रयोग करना चाहिए। स्नान करने के बाद साफ वस्त्र धारण करने चाहिए। इस दिन भगवान श्री विष्णु के साथ-साथ भगवान श्री राम की पूजा भी की जाती है। व्रत का संकल्प लेने के बाद ही इस व्रत को शुरु किया जाता है। संकल्प लेने के लिए इन दोनों देवों के समक्ष संकल्प लिया जाता है। देवों का पूजन करने के लिए कलश की स्थापना कर, उसके ऊपर लाल रंग का वस्त्र बांध कर पहले कलश का पूजन किया जाता है।
इसके बाद उसके ऊपर भगवान की तस्वीर या प्रतिमा रखें तत्पश्चात भगवान की प्रतिमा को स्नानादि से शुद्ध कर उत्तम वस्त्र पहनाना चाहिए। फिर धूप, दीप से आरती उतारनी चाहिए और मीठे फलों का भोग लगाना चाहिए। इसके बाद प्रसाद वितरित कर ब्राह्मणों को भोजन तथा दान-दक्षिणा देनी चाहिए। रात्रि में भगवान का कीर्तन करते हुए मूर्ति के समीप ही शयन करना चाहिए।
इस एकादशी का व्रत रखने वाले को अपना मन साफ रखना चाहिए। प्रातः काल सूर्योदय से पूर्व उठकर स्नान करें। इसके बाद शुद्घ वस्त्र पहनकर भगवान विष्णु की मूर्ति अथवा तस्वीर के सामने घी का दीपक जलाएं और तुलसी, फल, तिल सहित भगवान की पूजा करें। व्रत रखने वाले को स्वयं तुलसी पत्ता नहीं तोड़ना चाहिए।
किसी के प्रति मन में द्वेष की भावना न लाएं और न ही किसी की निंदा करें। व्रत रखने वाले को पूरे दिन निराहार रहना चाहिए। शाम में पूजा के बाद चाहें तो फलाहार कर सकते हैं। एकादशी के दिन रात्रि जागरण का बड़ा महत्व है। संभव हो तो रात में जागकर भगवान का भजन कीर्तन करें। अगले दिन यानी द्वादशी तिथि को ब्राह्मण को भोजन करवाने के बाद स्वयं भोजन करें।
मोहिनी एकादशी व्रत की कथा
भद्रावती नाम की सुंदर नगरी थी। वहां के राजा धृतिमान थे। इनके नगर में धनपाल नाम का एक वैश्य रहता था, जो धन-धान्य से परिपूर्ण था। वह सदा पुण्य कर्म में ही लगा रहता था। उसके पांच पुत्र थे। इनमें सबसे छोटा धृष्टबुद्धि था। वह पाप कर्मों में अपने पिता का धन लुटाता रहता था। एक दिन वह नगर वधू के गले में बांह डाले चौराहे पर घूमता देखा गया। इससे नाराज होकर पिता ने उसे घर से निकाल दिया तथा बंधु-बांधवों ने भी उसका परित्याग कर दिया।
अब वह दिन-रात दु:ख और शोक में डूब कर इधर-उधर भटकने लगा। एक दिन किसी पुण्य के प्रभाव से महर्षि कौण्डिल्य के आश्रम पर जा पहुंचा। वैशाख का महीना था। कौण्डिल्य गंगा में स्नान करके आए थे। धृष्टबुद्धि शोक के भार से पीड़ित हो मुनिवर कौण्डिल्य के पास गया और हाथ जोड़कर बोला, “ब्राह्मण! द्विजश्रेष्ठ! मुझ पर दया करके कोई ऐसा व्रत बताएं जिसके पुण्य के प्रभाव से मेरी मुक्ति हो।”
कौण्डिल्य बोले: वैशाख मास के शुक्लपक्ष में ‘मोहिनी’ नाम से प्रसिद्ध एकादशी का व्रत करो। इस व्रत के पुण्य से कई जन्मों के पाप भी नष्ट हो जाते हैं। धृष्टबुद्घि ने ऋषि की बताई विधि के अनुसार व्रत किया। जिससे वह निष्पाप हो गया और दिव्य देह धारण कर श्री विष्णुधाम को चला गया।