Surdas Jayanti

Surdas Jayanti Information, Verses, Poetry and Bhakti Movement

Surdas Jayanti commemorates the birthday of saint Surdas who is believed to be blind. There is difference of opinion among laureates and literature about his birth year. An Indian postal department released a postage stamp on the great poet which indicates that Surdas was born in 1479 AD and his soul departed in 1586.

Surdas Jayanti Information:

The poet attributes his contributions to Vatsalya Ras (वात्सल्य रस). He was a devoted saint who followed Lord Krishna and used to sing songs that are spiced up the childhood adventures of Lord Krishna. Surdas composed bhajans (religious verses) in simple ‘Braj’ language. These bhajans explains philosophical teachings and moral lessons by short episodes from the life of Krishna. His important literary works include the collection of his poetry as Sur Sagar, Sur-Saravali and Sahitya-Lahiri. The literary works by him helped in spreading the Bhakti movement in North India.

Surdas Postage StampSome historians recite an interesting legend about him that once Surdas saw Lord Krishna in his dreams and Krishna asked him to go to Vrindavan and he found Guru Vallabhacharya, an ardent devotee of Lord Krishna there. Surdas gained knowledge of Hindu scriptures from him and since then Surdas dedicated his entire life to Krishna. He remained bachelor all through his life. He began to sing devotional songs dedicated to Lord Krishna in Vrindavan. His fame soon reached Mughal courts and made Mughal emperor Akbar his patron.

These days Bhajan Mandali with its full orchestra team that consist mainly blind artists, stage bhakti gyan sudha, which fills the air with reverberating devotional ecstasy.

सूरदास की 5 चुनिंदा रचनाएं: Surdas Jayanti

सूरदास जी हिन्दी साहित्य में भक्तिकाल के प्रसिद्ध और महान कवि थे। सूरदास जी भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य उपासक और ब्रजभाषा के श्रेष्ठ कवि माने जाते हैं। उनकी रचनाएं दिल को छू जाती हैं। ऐसे में उन्हें हिंदी साहित्य का सूर्य भी माना जाता है। सूरदास जी ने वात्सल्य, श्रृंगार और शांत रसों को मुख्य रूप से अपनाया है। सूरदास जी कृष्ण प्रेम और माधुर्य की प्रतिमूर्ति है। जिसकी अभिव्यक्ति बड़ी ही स्वाभाविक और सजीव रूप में हुई है।

अब हों नाच्यौ बहुत गोपाल

अब हों नाच्यौ बहुत गोपाल।
काम क्रोध कौ पहिरि चोलना, कंठ विषय की माल॥

महामोह के नूपुर बाजत, निन्दा सब्द रसाल।
भरम भरयौ मन भयौ पखावज, चलत कुसंगति चाल॥

तृसना नाद करति घट अन्तर, नानाविध दै ताल।
माया कौ कटि फैंटा बांध्यो, लोभ तिलक दियो भाल॥

कोटिक कला काछि दिखराई, जल थल सुधि नहिं काल।
सूरदास की सबै अविद्या, दूरि करौ नंदलाल॥

भावार्थ: संसार के प्रवृति मार्ग पर भटकते-भटकते जीव अंत में प्रभु से कहता है, तुम्हारी आज्ञा से बहुत नाच मैंने नाच लिया। अब इस प्रवृति से मुझे छुटकारा दे दो, मेरा सारा अज्ञान दूर कर दो। वह नृत्य कैसा? काम-क्रोध के वस्त्र पहने। विषय की माला पहनी। अज्ञान के घुंघरू बजे। परनिन्दा का मधुर गान गाया। भ्रमभरे मन ने मृदंग का काम दिया। तृष्णा ने स्वर भरा और ताल तद्रुप दिये। माया का फेंटा कस लिया था। माथे पर लोभ का तिलक लगा लिया था। तुम्हें रिझाने के लिए न जाने कितने स्वांग रचे। कहां-कहां नाचना पड़ा, किस-किस योनि में चक्कर लगाना पड़ा। न तो स्थान का स्मरण है, न समय का। किसी तरह अब तो रीझ जाओ, नंदनंदन।

प्रभु, हौं सब पतितन कौ राजा

प्रभु, हौं सब पतितन कौ राजा।
परनिंदा मुख पूरि रह्यौ जग, यह निसान नित बाजा॥

तृस्ना देसरु सुभट मनोरथ, इंद्रिय खड्ग हमारे।
मंत्री काम कुमत दैबे कों, क्रोध रहत प्रतिहारे॥

गज अहंकार चढ्यौ दिगविजयी, लोभ छ्त्र धरि सीस॥
फौज असत संगति की मेरी, ऐसो हौं मैं ईस।

मोह मदै बंदी गुन गावत, मागध दोष अपार॥
सूर, पाप कौ गढ दृढ़ कीने, मुहकम लाय किंवार॥

भावार्थ: यहां बड़े पापी की राजा से तुलना की गई है। परनिन्दा ही राजमहल के द्वार पर नौबत का बजना है। तृष्णा पतितेश का देश है। अनेक मनोरथ योद्धा हैं। इन्द्रियां तलवार का काम देती हैं। काम कुमंत्री है और क्रोध है द्वारपाल। अहंकार दिग्विजय कराने में साथी है। सिर पर लोभ का राज छत्र है। दुष्टों की संगति सेना है। ऐसे नरेश की विरुदावली का गान मोह मदादि कर रहे हैं। भक्तिवाद में दीनता ही दीनबंधु की शरण में ले जाती है।

अब कै माधव, मोहिं उधारि

अब कै माधव, मोहिं उधारि।
मगन हौं भव अम्बुनिधि में, कृपासिन्धु मुरारि॥

नीर अति गंभीर माया, लोभ लहरि तरंग।
लियें जात अगाध जल में गहे ग्राह अनंग॥

मीन इन्द्रिय अतिहि काटति, मोट अघ सिर भार।
पग न इत उत धरन पावत, उरझि मोह सिबार॥

काम क्रोध समेत तृष्ना, पवन अति झकझोर।
नाहिं चितवत देत तियसुत नाम-नौका ओर॥

थक्यौ बीच बेहाल बिह्वल, सुनहु करुनामूल।
स्याम, भुज गहि काढ़ि डारहु, सूर ब्रज के कूल॥

भावार्थ: संसार-सागर में माया अगाध जल है, लोभ की लहरें हैं, काम वासना का मगर है, इन्द्रियां मछलियां हैं और इस जीवन के सिर पर पापों की गठरी रखी हुई है। इस समुद्र में मोह सवार है। काम-क्रोधादि की वायु झकझोर रही है। तब एक हरि नाम की नौका ही पार लगा सकती है, पर-स्त्री तथा पुत्र का माया-मोह उधर देखने ही नहीं देता। भगवान ही हाथ पकड़कर पार लगा सकते हैं।

कब तुम मोसो पतित उधारो

कब तुम मोसो पतित उधारो।
पतितनि में विख्यात पतित हौं पावन नाम तिहारो॥

बड़े पतित पासंगहु नाहीं, अजमिल कौन बिचारो।
भाजै नरक नाम सुनि मेरो, जमनि दियो हठि तारो॥

छुद्र पतित तुम तारि रमापति, जिय जु करौ जनि गारो।
सूर, पतित कों ठौर कहूं नहिं, है हरि नाम सहारो॥

भावार्थ: जो पुण्य करता है, वह स्वर्ग पद पाता है। मैंने कोई पुण्य नहीं किया, इससे स्वर्ग जाने का तो मेरा अधिकार है नहीं। अब रह गया नरक। मगर नरक भी मेरे महान पापों को देखकर डर गया है। वहां भी प्रवेश की अनुमति नहीं है। अब कहां जाऊं। अब तो, नाथ, तुम्हारे चरणों का ही अवलम्ब है, सो वहीं थोड़ी-सी जगह कृपाकर दे दो।

है हरि नाम कौ आधार: Surdas Jayanti

है हरि नाम कौ आधार।
और इहिं कलिकाल नाहिंन रह्यौ बिधि-ब्यौहार॥

नारदादि सुकादि संकर कियौ यहै विचार।
सकल स्रुति दधि मथत पायौ इतौई घृत-सार॥

दसहुं दिसि गुन कर्म रोक्यौ मीन कों ज्यों जार।
सूर, हरि कौ भजन करतहिं गयौ मिटि भव-भार॥

भावार्थ: ‘हरि-भजन’ ही मुक्ति का सर्वोत्कृष्ट और तत्काल फलदायक साधन है। इसलिए ‘सब तज, हरि भज’ ही सबसे महत्वपूर्ण ज्ञान है।

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