भगवान वाल्मीकि प्रकट दिवस पर विशेष
आदि कवि भगवान वाल्मीकि जी ने श्रीराम के चरित्र पर आधारित महाकाव्य श्री रामायण की रचना की। इस महाकाव्य की रचना भगवान वाल्मीकि जी ने संस्कृत भाषा में की इसलिए उनको संस्कृत काव्य का पितामह कहा जाता है। इस महाकाव्य में 24,000 श्लोक, 100 आख्यान, 500 सर्ग और उत्तर कांड सहित 7 कांडों की रचना की।
अपनी अमर कथा महाकाव्य रामायण में भगवान वाल्मीकि जी ने श्री राम कथा के द्वारा मानवीय सभ्यता के बारे में वैदिक साहित्य में वर्णित मजबूत और सुनहरी तथ्यों का ऐसा अद्भुत चित्र पेश किया है जो प्राचीन होते हुए भी नवीन है, सांसारिक होते हुए भी दिव्य है और स्थायी मूल्यों से परिपूर्ण है। भगवान वाल्मीकि जी ने महाकाव्य रामायण की रचना उस समय की मातृभाषा संस्कृत में की ताकि आदर्श जीवन के सिद्धांत आम लोगों तक पहुंच सकें क्योंकि समाज अपनी मातृभाषा की पकड़ में जल्दी आ जाता है। इसका परिणाम यह निकला कि लोगों में नेक रहा पर चलने का उत्साह बढ़ा। मानवीय जीवन और समाज में सुधार आया। समाज में परिवर्तन और लोगों को नेक राह पर अग्रसर करने वाले भगवान वाल्मीकि जी पहले क्रांतिकारी एवं समाज सुधारक थे।
भगवान वाल्मीकि जी ने सबसे पहले विश्व को शांति एवं अहिंसा का संदेश दिया। समाज को मर्यादा में बांधने के लिए उन्होंने एक अमर कथा के द्वारा मानवीय मूल्यों के उत्थान और समाज को सही दिशा की ओर मोड़ने का यत्न किया पर इस ओर मुड़ने से पहले एक बहुत ही दुखदायी घटना घटित हुई। एक निर्दयी शिकारी ने तमसा नदी के तट पर बैठे क्रौच पंछी के जोड़े में से नर पक्षी को अपने बान से मार दिया। इस दृश्य को देखकर भगवान वाल्मीकि का हृदय व्याकुल हो उठा और उनके मुख से दुनिया का पहला श्लोक निकला:
मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौच मिथुनादेकम् अवधिः काममोहितम्।।
यहां प्रश्न केवल एक पक्षी की हत्या का नहीं था वास्तव में बात तो अत्याचार और अन्याय की थी। समाज की मर्यादा भंग हुई थी। भगवान वाल्मीकि जी ने जीवन के इस पक्ष के लिए एक दीपक के रूप में कार्य किया।
‘महाकाव्य रामायण‘ में जहां उन्होंने श्री राम के चरित्र द्वारा बड़ों की आज्ञा पालन, भातृप्रेम, शास्त्र विद्या, संगीत, राजनीति, विज्ञान आदि गुणों का वर्णन किया वही उन्होंने अपने पहले महाकव्य श्री ‘योगवशष्टि’ की रचना करके समाज का बहुत बड़ा उद्धार किया।
महाकाव्य श्री योगवशिष्ट में भगवान वाल्मीकि जी ने मुक्ति की मंजिल तक पहुंचने के लिए राह में आने वाली सभी उलझनों एवं मुश्किलों का विस्तापूर्वक वर्णन किया है। इस ग्रंथ में वाल्मीकि जी ने बताया है कि मानव को संसारिक सुखों की कामना नहीं करनी चाहिए क्योंकि सुख तो हमेशा दुख से पैदा होता है और बाद में सुख-दुख में विलीन हो जाता है। मानव जीवन का मुख्य उद्देश्य मुक्ति प्राप्ति है। मुक्ति का अर्थ ईच्छा और मोह का नशा। इच्छा दुख का कारण है। जब इच्छा ही खत्म हो गई तो दुख तो स्वयं ही खत्म हो जाते हैं। यही मुक्ति है। मानव जीवन का उद्देश्य केवल सांसारिक सुखों को उपभोग करना और सुखमय जीवन व्यतीत करते हुए मर जाना नहीं है बल्कि अपने अस्तित्व को पहचानना है।
भगवान वाल्मीकि जी योगवशिष्ट में कहते हैं कि मुक्ति तप करने से, दान करने से या फिर तीर्थ यात्रा करने से प्राप्त नहीं होती मुक्ति केवल ज्ञान प्राप्ति से ही संभव है।
मिथिला के राजा जनक की पुत्री माता सीता, राजा दशरथ की पुत्रवधू, श्रीराम की धर्मपत्नी और लव तथा कुश की माता थीं। लव और कुश दोनों भाई धर्म के ज्ञाता और तेजस्वी बालक थे। भगवान वाल्मीकि जी ने दोनों भाइयों को महाकाव्य श्री रामायण का अध्ययन करवाया और इसके साथ ही गीत-संगीत और अस्त्र-शस्त्र की विद्या भी प्रदान की। कल्याणकारी भगवान वाल्मीकि जी के हाथ में पकड़ी हुई कलम विद्या और ज्ञान प्राप्ति की ओर संकेत करती है। किसी शायर ने भगवान वाल्मीकि जी की हाथ पकड़ी हुई कलम की प्रशंसा करते हुए कहा है कि
‘कलम वो ताकत है जो तलवार को भी झुकाएगी
वाल्मीकि कलम ही धरती पे स्वर्ग को लाएगी
इस जमीं से आसमान तक कलम का ही नूर है
वाल्मीकि कलम में देखो तो कितना सरूर है।।’
अगर हमें कलमधारी वाल्मीकि जी की दयादृष्टि प्राप्त करनी है तो इनकी कलम को ग्रहण करना होगा अर्थात विद्या और ज्ञान प्राप्ति की राह पर अग्रसर होना पड़ेगा क्योंकि ज्ञान अज्ञानता के अंधकार को दूर करता है।
~ पवन हंस