तबले का इतिहास व आविष्कार: तबला भारतीय उपमहाद्वीप से उत्पन्न ऐसे वाद्य यंत्रों में इकलौता है, जिसका मुंह चमड़े से मढ़ा होता है। यह सभी पारंपरिक, शास्त्रीय, लोकप्रिय और लोक संगीत में इस्तेमाल किया जाता है और सभी वाद्य यंत्रों जैसे सितार, सरोद, बांसुरी में संगत देने वाला इकलौता साज तबला ही है।
तबले का इतिहास व आविष्कार:
यह 18वीं शताब्दी के बाद से हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में एक विशेष रूप से महत्वपूर्ण वाद्य यंत्र के रूप में उभरा है और भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश तथा श्रीलंका में उपयोग में लाया जाता है। तबला एकल वादन के लिए भी संपूर्ण वाद्य यंत्र है।
माना जाता है कि तबला नाम संभवत: फारसी और अरबी शब्द ‘तब्ल‘ से उत्पन्न हुआ है जिसका अर्थ ड्रम (ताल वाद्य) होता है। कुछ विद्वानों का मत यह भी है कि तब्ल शब्द अरबी नहीं है, बल्कि इस शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के ‘तबुला‘ से हुई है।
हालांकि, इस वाद्य की वास्तविक उत्पत्ति विवादित है। बहुत से लोगों की धारणा है कि इसकी उत्पत्ति भारतीय उपमहाद्वीप में मुगलों के आने के बाद में पखावज (एक वाद्ययंत्र) से हुई है, तो वहीं कुछ विद्वान इसे एक प्राचीन भारतीय परम्परा में इस्तेमाल किए जाने वाले ‘अवनद्ध वाद्यों‘ (चमड़े से ढके) का विकसित रूप मानते हैं और कुछ लोग इसकी उत्पत्ति का स्थान पश्चिमी एशिया भी बताते हैं परंतु भाजा की गुफाओं में की गई नक्काशी, तबले कौ भारतीय उत्पत्ति का ठोस प्रमाण प्रस्तुत करती है।
इसकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में वर्णित विचारों को दो समूहों में बांध जा सकता है:
तुर्क-अरब उत्पत्ति:
पहले सिद्धांत के अनुसार औपनिवेशिक शासन के दौरान इस परिकल्पना को काफी बढ़ावा मिला कि तबले की मूल उत्पत्ति भारतीय उपमहाद्वीप पर आक्रमण करने वाली मुस्लिम सेनाओं के साथ चलने वाले ड्रम से हुई है। ये सैनिक इन ड्रमों को पीट कर अपने दुश्मनों को हमले कौ चेतावनी देते थे। बाबर द्वारा सेना के साथ ऐसे ड्रम लेकर चलने को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, हालांकि तुर्क सेनाओं के साथ चलने वाले इस वाद्ययंत्र की तबले से कोई समानता नहीं है, बल्कि ये ‘नक्कारा‘ (भीषण आवाज पैदा करने वाले वाद्य) से काफी समानता रखते हैं।
अरब सिद्धांत का दूसरा संस्करण यह है कि अलाउद्दीन खिलजी (Alauddin Khalji) के समय में, अमीर खुसरो (Amīr Khusrau) ने ‘आवाज ड्रम‘ (तालवाद्य) को काट कर तबले का आविष्कार किया था परंतु प्रश्न यह उठता है कि यदि उस समय तक तबले का आविष्कार हो चुका था तो मुस्लिम इतिहासकारों के विवरणों में ऐसे किसी वाद्ययंत्र का उल्लेख क्यों नहीं किया गया।
यहां तक कि 16वीं शताब्दी में अबुल फजल ने ‘आइन -ए-अकबरी‘ में तत्कालीन वाद्ययंत्रों की लंबी सूची बनाई है, लेकिन इसमें भी तबले का कोई जिक्र नहीं है।
अरब सिद्धांत का तीसरा संस्करण यह है कि तबले के आविष्कार का श्रेय 18वीं शताब्दी के संगीतकार अमीर खुसरो को दिया गया है। कहा जाता है कि अमीर खुसरो ने पखावज को दो टुकड़ों में बांट कर तबले का आविष्कार किया। यह पूरी तरह से अनुचित सिद्धांत
नहीं है और इस युग के लघु चित्रों में ऐसे वाद्ययंत्र दिखते हैं जो तबले की तरह दिखाई देते हैं। हालांकि, इससे यह प्रतीत होता है कि इस वाद्ययंत्र की उत्पत्ति भारतीय उपमहाद्वीप के मुस्लिम समुदायों द्वारा हुई थी, न कि यह अरब देशों से आयातित वाद्ययंत्र है।
भारतीय उत्पत्ति:
भारतीय उत्पत्ति के सिद्धांत के अनुसार इस संगीत वाद्य यंत्र ने मुस्लिम शासन के दौरान एक नया अरबी नाम प्राप्त किया था, लेकिन यह प्राचीन भारतीय ‘पुष्कर’ का विकसित रूप है। पुष्कर वाद्य के प्रमाण छठी-सातवीं सदी के मंदिरों, खासतौर पर मुक्तेश्वर और भुवनेश्वर में प्राप्त होते हैं। इन कलाकृतियों में वादक दो या तीन अलग-अलग तालवादों को सामने रख कर बैठे दिखाए गए हैं।
तबले की सामग्री और निर्माण के तरीके के लिखित प्रमाण संस्कृत ग्रंथों में उपलब्ध हैं। तबले जैसे वाद्ययंत्र के निर्माण सम्बन्धी सबसे पुरानी जानकारी और इसको बजाने से संबंधित विवरण हिन्दू नाट्य शास्त्र में मिलता है। वहीं, दक्षिण भारतीय ग्रंथ शिलप्पदिकारम (जिसकी रचना प्रथम शताब्दी ईसवी मानी जाती है) में लगभग तीस ताल वाद्यों का विवरण है।
हाथों से बजाए जाने वाले वाद्ययंत्र पुष्कर के प्रमाण पांचवीं सदी में मिलते हैं, जो मृदंग के साथ अन्यतालवाध्यों में गिने जाते थे, हालांकि, तब इन्हें तबला नहीं कहा जाता था। पांचवीं सदी से पूर्व की अजंता गुफाओं के भित्ति-चित्रों में जमीन पर बैठ कर बजाए जाने वाले ड्रम देखने को मिलते हैं, यहां तक कि एलोरा की मूर्तियों में भी बैठकर ताल वाद्य बजाते हुए कलाकारों को दिखाया गया है । पहली सदी के चीनी-तिब्बती संस्मरणों में कई अन्य वाद्ययंत्रों के साथ छोटे आकार के ड्रमों का उल्लेख मिलता है जो कि बौद्ध भिक्षुओं (जिन्होंने उस समय भारतीय उपमहाद्वीप का दौरा किया था) द्वारा लिखे गए थे।
पुष्कर को तिब्बती साहित्य में “जोंग्पा” कहा गया है। कई प्राचीन जैन और बौद्ध ग्रंथों, जैसे समवायसूत्र, ललितविस्तार और सूत्रालंकार इत्यादि में भी पुष्कर नामक इस तालवाद्य के विवरण मिलते हैं।