वनों में पर्यावण की रक्षा में लकड़बग्घे का बहुत योगदान है। ये वनों के चक्कर लगाता रहते हैं। बीमारी से मरे जानवरों को शिकारी पशु नहीं खाते परन्तु ये बड़ी सफाई से उन्हें चट कर जाते हैं। बाघ जाति के जानवर अपने शिकार का कुछ भाग खाते हैं और कुछ सड़ने के लिए छोड़ देते हैं। उस बदबूदार मांस का भक्षण लकड़बग्घे करते हैं। वन में लगे कैंम्पों तथा घरों से बाहर फैंकी हुई जूठन और हड्डियों के टुकड़ों को खाने के लिए ये रात में आ जाते हैं। छोटे – छोटे टुकड़ों के लिए ये आपस में खूब लड़ते है इसीलिए इसे मैदानों और जंगलों की “गंदगी साफ़ करने वाला क्रियाशील सफाईकर्मी” कहा जाता है।
लकड़बग्घा हड्डियां तक चट कर जाता है। इस कारण इसका मल चाक जैसा सफ़ेद होता है। इसे दवा में इस्तमाल किया जाता। “एल्बम ग्रसियम” के नाम से इसे गिल्ल्ड, मस्से जैसे रोगों में प्रयोग किया जाता है। पूर्वी भारत में लकड़बग्घे की जीभ और चर्बी सुजनों और रासौलियों को बिठाने के लिए काम में लाई जाती है। अफ्रीका में इसकी चर्बी रोगग्रस्त अंगों पर मली जाती है। मिस्र में नीलघाटी के लोग दीर्घायु होने के लिए इसका दिल तक खा जाते हैं। इसे मनुष्य के लिए कई तरह से उपयोगी जीव माना गया है।
लकड़बग्गे दो प्रकार के होते हैं – धारीदार और चीतल। इसे अंग्रेजी में “स्ट्राइप्ड हायना” और “स्पॉटेड हायना” कहते हैं। संस्कृत में दोनों का नाम तरक्षु हैं। भारतीय उपमहाद्वीप में धारीदार लकड़बग्गे जबकि अफ्रीका में चीतल लकड़बग्गे पाए जाते हैं।
अफ्रीकी लकड़बग्गे जहां झुंड में रहते हैं वहीं धारीदार लकड़बग्गे उनकी तरह सामाजिक जीव नहीं हैं। धारीदार लकड़बग्गे जीवन एक हाथी के साथ गुजारते हैं।