आशा की किरण
मानसी ने अपने होस्पाइस करियर को सेंट जूड्स इंडिया चाइल्डकेयर सैंटर में शुरू किया था जो मुम्बई के परेल में टाटा मैमोरियल अस्पताल के सहयोग से कार्य करता है। मानसी बताती हैं, “वहां मेरा कार्य बच्चों को खुश रखना था। सेंट जूडस ने मरणासन्न बच्चो की देखभाल में बढियां कार्य किया है परंतु कई बार इलाज की कोई सम्भावना नहीं रहती तब अस्पताल को फैसला लेना पड़ता है कि उन्हें रखा जाए या उनके घर भेज दिया जाए।”
इसी वजह से मानसी ने ‘हैप्पी फीट होम’ की स्थापना की जहां मरणासन्न बच्चे जीवन के अंतिम दिन बिता सकें।
सेंट जूड्स की सी.ई.ओ. उषा बनर्जी कहती हैं की उनका चाइल्डकेयर सैंटर आशा की किरण है। वह बताती हैं, “हम सुनिश्चित करते हैं कि बच्चे पॉजिटिव माहौल में रहें। हम उन्हें घर जैसा अहसास देते हैं। माता-पिता चाहें तो अपने बच्चों के लिए स्वयं भोजन पका सकते हैं।”
पॉजीटिव स्थान
मानसी तथा उषा दोनों सहमत हैं कि सैंटर में पॉजीटिव माहौल की वजह वहां बच्चों की उपस्थिति ही है। ऊषा कहती है, “वे उत्साह से भरपूर हैं और कीमोथैरेपी करवाने के बाद भी उनमें उतनी ऊर्जा होती है की वे विभिन्न गतिविधियों में हिस्सा ले सकते हैं।” आखिर वे ऐसे माहौल में किस तरह से पॉजीटिव रहते हैं जहां उनकी आंखो के सामने अक्सर बच्चे जीवन के अंतिम क्षणों तक पहुंचते है, मानसी कहती हैं, “यह बेहद संवेदनशील तथा भावनात्मक कार्य है। हमारे पास स्टाफ सदस्यों के लिए भी काऊंसलर्स हैं जो बच्चों के निधन से जूझने में उन्हें सलाह देते हैं। आमतौर पर मैं रो कर अपने दुख को व्यक्त कर लेती हूं।”
बुजुर्ग रोगियों की देखभाल
जहां ‘हैप्पी फीट होम‘ तथा सेंट जूड्स बच्चों की देखभाल करते हैं वहीं बांद्रा स्थित “शांति अवेदना सदन” बुजुर्ग मरणासत्र रोगियों का आश्रय है। इसकी वेबसाइट के अनुसार उनका उदेश्य ‘दिनों में जीवन भरना है न कि जीवन के दिन बढ़ाना’।
सैंटर में स्टाफ दर्द दूर करने के लिए मोरफीन या अन्य दवाओं का थोड़ी मात्रा में ही इस्तेमाल करते हैं। यह रोगी की जरूरत के अनुसार ही उसे दी जाती है। ज्यादा मात्रा से परहेज किया जाता है क्योंकि रोगी को इसकी आदत पड़ सकती है।
इस आश्रय स्थल के ट्रस्टी डा. एल.जे. डिसूजा कहते हैं कि इसकी स्थापना की जरूरत सबसे पहले तब महसूस हुई थी जब टाटा मैमोरियल अस्पताल में युवा चिकित्सक के रूप में उनकी मुलाकात ऐसे कई रोगियों से होती थी। वह बताते हैं, “वे मेरे पास आकर गिड़गिड़ाते कि उन्हें अस्पताल से छुट्टी न दूं क्योंकि उनके पास घर या देखभाल करने वाला कोई नहीं है। मैं उन्हें छुट्टी न देकर अन्य जरूरतमंद मरीजों को बैंड्स से वंचित नही रख सकता था। तब मैंने इस आश्रय स्थल की स्थापना करने का फैसला किया जो निःशुल्क हैं।”
डा. डिसूजा कहते हैं कि रोगियों के जीवित रहते हुए उनकी सेवा करने की हिम्मत तथा दिशा दिखाने वाली शक्ति ही रोगियों के दुनिया से कूच जाने के बाद उन्हें हौसला रख कर अपना काम जारी रखने की ताकत देती है।