सबसे पुराना डाकघर: 17 जनवरी, 1774 को बंगाल के तत्कालीन गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने ईस्ट इंडिया कम्पनी की चिट्ठियाँ लाने-ले जाने के लिए डाक व्यवस्था शुरू करने की विस्तृत योजना तैयार की। उसके अनुसार 500 रुपए महावार पर एक महाडाकपाल की नियुक्ति की गई और उसकी सहायता के लिए एक सहायक, दो लिपिक, एक अधिकारी, सात डाक छांटने वाले और 5 डाकिए भी नियुक्त किए गए।
देश का सबसे पुराना ‘बड़ा डाकघर’
जिस इमारत में डाक घर का काम शुरू होना था, वह कलकत्ता के टैंक स्क्वायर में स्थित थी और कभी नवाब सिराजुद्दौला की नृत्यशाला रही थी । इस प्रकार 1 अप्रैल, 1774 को भारत के प्रथम बड़े डाकघर का जन्म हुआ। महाडाकपाल को चार अलग-अलग मार्गों 1. कोलकाता से गंजम (अब उड़ीसा में) तक, 2. गंजम व मुर्शिदाबाद के बीच और बाद में पुणे तक, 3. कोलकाता और ढाका के बीच और 4. कोलकाता से बनारस तक- डाक वितरण का काम सौंपा गया था।
10-10 किलोमीटर पर एक पड़ाव कायम किया गया और उसके लिए तीन हरकारे, एक मशालची और एक ढोलकिया (जंगली जानवरों को डराने के लिए) नियुक्त किए गए। बाहर से कलकत्ता आने वाली डाक केडगेरी पर उतारी जाती थी और वहां से किश्तियों के जरिए बड़े डाक घर पहुंचाई जाती थी।
यूं तो डाक व्यवस्था मूलत: कम्पनी के अपने खाते व कागजात के लिए थी, मगर उसकी सेवा आम जनता को भी उपलब्ध कराई गई। अढ़ाई तोले तक वजन के प्रत्येक लिफाफे का डाक महसूल तीन आना (बारह पैसे) प्रति 100 मील रखा गया। प्रारंभ में यह महसूल ताम्बे के छोटे टोकनों में अदा करना पड़ता था, जो स्थानीय डाक घरों से खरीदे जा सकते थे।1784 में यह व्यवस्था बंद कर दी गई और महसूल नकद वसूल किया जाने लगा।
1780 में कोलकाता से हर सप्ताह डाक मछलीपट्टनम (वर्तमान आंध्र प्रदेश में) पहुंचाकर वहां से मद्रास व मुम्बई भेजने का प्रबंध किया गया। डाक को कलकत्ता से मद्रास पहुंचाने में 17 दिन लगा करते थे और मुम्बई पहुंचने में 26 दिन। 1820 में मुम्बई के लिए सीधा भूमि मार्ग अपनाया गया, जो नागपुर और औरंगाबाद होकर गुजरता था। इस मार्ग से डाक 10 दिन में मुम्बई पहुंचने लगी।
मूलत: कोलकाता के बड़े डाक घर के अधिकार क्षेत्र में समूचा पूर्वी और उत्तरी भारत आत था। मुर्शिदाबाद, पटना, बनारस, ढाका, गंजम और दीनाजपुर में अंग्रेज उप महाडाकपाल नियुक्त किए गए। 1820 में बनासस में एक उप महाडाकपाल नियुक्त हुआ, जिसका काम था बनारस से पश्चिम के इलाकों की डाक व्यवस्था की देखरेख करना।
डाक व्यवस्था के विस्तार के साथ डाक भेजने के तरीकों का भी विकास हुआ हरकारों का स्थान क्रमश: बैलगाड़ी और घोड़ागाड़ी ने लिया। 1845 में बैलगाड़ी से इलाहाबाद होकर कोलकाता और दिल्ली के बीच डाक पहुंचाने का काम शुरू हुआ।
1850 में बैलगाड़ी के जरिए लाहौर तक डाक भेजी जाने लगी और बाद में उससे भी आगे पेशावर तक। कोलकाता के महाडाक पाल को एक नई सूझ थी बैलगाड़ियों के कारवां के जरिए डाक भेजना। 1855 के गजट के अनुसार पहली बार दिल्ली और लाहौर के बीच इस तरीके से डाक भेजी गई।
स्पष्ट है कि डाक भेजने की व्यवस्था में होने वाले परिबर्तनों का स्वरूप उन स्थानों के भौगोलिक स्वरूप पर निर्भर रहा । मसलन जिन इलाकों से हरकारे डाक लेकर दौड़ा करते थे वहां डोली के जरिए डाक भेजी जाने लगी। इससे न केवल डाक प्रेषण में आसानी हुई बल्कि अधिकारियों का एक स्थान से दूसरे स्थान पर आना-जाना भी आसान हो गया। डोली उठाने के लिए आठ कहार होते और उनके साथ दो मशालची व एक कुली रहता। एक मौल का किराया होता था एक रुपया। इस तरह कोलकाता से बनारस जाने के लिए 445 रुपए देने पड़ते थे।
फिर आई रेलें। हावड़ा से हुगली तक पहली बार भाप के इंजन वाली ट्रेन 15 अगस्त, 1854 को चली थी। 1866 तक रेल की लाइनें दिल्ली से मुम्बई तक फैल गईं और इसके साथ ही रेल के जरिए डाक प्रेषण शुरू हो गया। प्रारंभ में डाक के मोहरबंद थैले ही रेल में लिए जाते थे, मगर ‘यात्री डाक घर’ (ट्रैवलिंग पोस्ट आफिस, वर्तमान नाम ‘रेल डाकसेवा’) की शुरुआत के बाद डाक छांटने का काम चलती ट्रेनों में ही होने लगा।
पहला यात्री डाक घर 1 मई, 1864 को इलाहाबाद और कानपुर के बीच शुरू किया गया था। अगले छह सालों में कोलकाता से दिल्ली और कोलकाता से मुम्बई के लिए उसकी व्यवस्था हो गई स्टेशनों पर दो की डाक पेटियां रखी रहती थीं। ‘अप’ गाड़ियों से जाने वाली डाक के लिएलाल और ‘डाऊन’ गाड़ियों से जाने वाली डाक के लिए काली।
उस जमाने में इंगलैंड से डाक जहाज के जरिए मुम्बई आती थी। वहां से ‘कोलकाता की चिट्टियां रेल द्वारा कोलकाता पहुंचती थीं। इंगलैंड से डाक मुम्बई आ पहुंची है, इसकी सूचना देने के लिए बड़े डाक घर पर तीन सफेद सलीबों बाला लाल झंडा फहराया जाता था। उसी प्रकार जब विदेश को डाक रवाना होने वाली होती सफेद रंग का झंडा फहराया जाता था, जिसपर ब्रिटेन का शाही ताज बना रहता था।
बहुत ही व्यस्त कार्यालय था कोलकाता के बड़े डाक घर का। 9 नवम्बर, 1854 के गजट के अनुसार दिन में छह बार डाक बांटी जाती थी-सुबह 7 बजे, 10 बजे, 11.30 बजे तथा दोपहर को 1.30 बजे, 2.30 बजे और 4.30 बजे। 3 अक्तूबर, 1868 को बड़ा डाक घर डल्हौजी स्कवायर की इमारत में स्थानांतरित किया गया। इस शानदार भवन का नक्शा डब्ल्यू-बी. ग्रैनविले ने बनाया था इसके निर्माण में लगभग चार साल लगे थे और उस जमाने में 6,30,000 रुपए खर्च हुए थे।