स्मृता उस घटनाक्रम को याद करते हुए बताती है:
आठ वर्ष की बच्ची अपने पिता का हाथ पकडें हवाई अड्डे पर पहुंची। तब उसे युद्ध का मतलब भी पता नहीं था। पिता ने उसे हवाई अड्डे के निकास पर चाय से भरे बड़े बर्तन के पास एक स्टूल पर बैठा दिया और उसे चाय पीने के लिए अाने वाले हर व्यक्ति को दो बिस्कुट देने को कहा। उस दिन उसका यही काम था। थोड़ी शर्म, थोड़े संकोच के साथ सारा दिन बच्चो ने अपने पिता के कहे अनुसार किया। वह अकेल नहीं थी। उसकी मां, बहने, दादी मां तथा दो पारिवारिक मित्र भी हवाई अड्डे पर लोगों की हर सम्भव मदद कर रहे थे।
कुवैत से लौट रहे अनजान लोगों के चेहरों पर दुख, भय, भूख तथा अपना सब कुछ खो देने से पैदा हताशा के भाव साफ़ दिखाई दे रहे थे। हालांकि खाली हाथ अपने देश पहुंचने के बाद एक नई शुरुआत करने की आस भी उनके मन में थी। इस बात से भी उन्हें संतोष था कि समय पर यदि न निकल पाते तो शायद कभी अपने वतन लौट पर अपनों से मिल न पाते।
सेवा का पाठ
बच्ची के पिता इनकी मदद के लिए अपने पुरे परिवार के साथ जुट गए। एक कार्य से उन्होंने अपनी बच्चियों को जीवन का सबसे बड़ा पाठ पढ़ाया जिसने उन्हें निःस्वार्थ सेवा के सच्चे अर्थ से परिचित करवा दिया।
पिता ने हवाई अड्डे पर लंगर लगाने के लिए विशेष अनुमति ली। जल्द ही उन्हें अहसास हुआ कि केवल भोजन प्रदान करना ही काफी नहीं था लौटे कई लोग निरक्षर मजदूर थे जो इमिग्रेशन फार्म भी भर नही पा रहे थे। आहलूवालिया परिवार की महिलाएं उनकी मदद के लिए आगे आई और उनके फार्म भरे।
उनमें से कईयों के पास फोन बूथ से घर फोन करने के लिए एक रुपया तक नहीं था। दादी ने टेबल लगा कर एक रुपय के सिक्के उपलब्ध करवाए।