पर इस सार्थकता को तुम मुझे कैसे समझाओगे कनु ? शब्द, शब्द, शब्द…… मेरे लिए सब अर्थहीन हैं यदि वे मेरे पास बैठकर मेरे रूखे कुन्तलों में उँगलियाँ उलझाए हुए तुम्हारे काँपते अधरों से नहीं निकलते शब्द, शब्द, शब्द…… कर्म, स्वधर्म, निर्णय, दायित्व…… मैंने भी गली-गली सुने हैं ये शब्द अर्जुन ने चाहे इनमें कुछ भी पाया हो मैं इन्हें …
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कस्बे की शाम – धर्मवीर भारती
झुरमुट में दुपहरिया कुम्हलाई खेतों में अन्हियारी घिर आई पश्चिम की सुनहरिया घुंघराई टीलों पर, तालों पर इक्के दुक्के अपने घर जाने वाले पर धीरे धीरे उतरी शाम ! आँचल से छू तुलसी की थाली दीदी ने घर की ढिबरी बाली जम्हाई ले लेकर उजियाली, जा बैठी ताखों में घर भर के बच्चों की आँखों में धीरे धीरे उतरी शाम …
Read More »किसान (भारत–भारती से) – मैथिली शरण गुप्त
हेमन्त में बहुदा घनों से पूर्ण रहता व्योम है। पावस निशाओं में तथा हँसता शरद का सोम है॥ हो जाये अच्छी भी फसल, पर लाभ कृषकों को कहाँ। खाते, खवाई, बीज ऋण से हैं रंगे रक्खे जहाँ॥ आता महाजन के यहाँ वह अन्न सारा अंत में। अधपेट खाकर फिर उन्हें है काँपना हेमंत में॥ बरसा रहा है रवि अनल, भूतल …
Read More »क्योंकि सपना है अभी भी – धर्मवीर भारती
…क्योंकि सपना है अभी भी इसलिए तलवार टूटी अश्व घायल कोहरे डूबी दिशाएं कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धुंध धूमिल किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी …क्योंकि सपना है अभी भी! तोड़ कर अपने चतुर्दिक का छलावा जब कि घर छोड़ा, गली छोड़ी, नगर छोड़ा कुछ नहीं था पास बस इसके अलावा विदा बेला, यही …
Read More »ठंडा लोहा – धर्मवीर भारती
ठंडा लोहा! ठंडा लोहा! ठंडा लोहा! मेरी दुखती हुई रगों पर ठंडा लोहा! मेरी स्वप्न भरी पलकों पर मेरे गीत भरे होठों पर मेरी दर्द भरी आत्मा पर स्वप्न नहीं अब गीत नहीं अब दर्द नहीं अब एक पर्त ठंडे लोहे की मैं जम कर लोहा बन जाऊँ– हार मान लूँ– यही शर्त ठंडे लोहे की। ओ मेरी आत्मा की …
Read More »तुम्हारे पाँव मेरी गोद में – धर्मवीर भारती
ये शरद के चाँद से उजले धुले–से पांव, मेरी गोद में। ये लहर पर नाचते ताजे कमल की छांव, मेरी गोद में। दो बड़े मासूम बादल, देवताओं से लगाते दांव, मेरी गोद में। रसमसाती धुप का ढलता पहर, ये हवाएं शाम की झुक झूम कर बिखर गयीं रौशनी के फूल हारसिंगार से प्यार घायल सांप सा लेता लहर, अर्चना की …
Read More »सम्पाती – धर्मवीर भारती
(जटायु का बड़ा भाई गिद्ध जो प्रथम बार सूर्य तक पहुचने के लिए उड़ा पंख झुलस जाने पर समुद्र-तट पर गिर पड़ा! सीता की खोज में जाने वाले वानर उसकी गुफा में भटक कर उसके आहार बने) …यह भी अदा थी मेरे बड़प्पन की कि जब भी गिरुं तो समुद्र के पार! मेरे पतन तट पर गहरी गुफा हो एक- …
Read More »मुझ पर पाप कैसे हो – धर्मवीर भारती
अगर मैंने किसी के होठ के पाटल कभी चूमे अगर मैंने किसी के नैन के बादल कभी चूमे महज इससे किसी का प्यार मुझको पाप कैसे हो? महज इससे किसी का स्वर्ग मुझ पर शाप कैसे हो? तुम्हारा मन अगर सींचूँ गुलाबी तन अगर सीचूँ तरल मलयज झकोरों से! तुम्हारा चित्र खींचूँ प्यास के रंगीन डोरों से कली-सा तन, किरन-सा …
Read More »भारतीय सभ्यता के नाम
गाय हमारी Cow बन गई, शर्म हया अब Wow बन गई। काढ़ा हमारा चाय बन गया, छोरा बेचारा Guy बन गया। योग हमारा Yoga बन गया, घर का जोगी Joga बन गया। भोजन 100 रू. प्लेट बन गया, हमारा भारत Great बन गया। घर की दीवारें Wall बन गई, दुकानें Shopping Mall बन गई। गली-मोहल्ला Ward बन गया, ऊपरवाला Lord …
Read More »क्या इनका कोई अर्थ नही – धर्मवीर भारती
ये शामें, ये सब की सब शामें… जिनमें मैंने घबरा कर तुमको याद किया जिनमें प्यासी सीपी का भटका विकल हिया जाने किस आने वाले की प्रत्याशा में ये शामें क्या इनका कोई अर्थ नही? वे लम्हें, वे सारे सूनेपन के लम्हे जब मैंने अपनी परछाई से बातें की दुख से वे सारी वीणाएं फैंकी जिनमें अब कोई भी स्वर …
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