आपका बच्चा बाहर से लौटा है, सूजी और काली पड़ी आँख के साथ, मुहं में रेत गयी है या खींचातानी में शर्ट फटी है और मुहं पर खरोच के निशान हैं तो थोड़ा सतर्क हो जाएँ। ध्यान दें कि बच्चा अपने हम -उम्र बच्चों के बीच दादागिरी तो नहीं करने लगा है। ऐसे में आवश्यकता है बच्चे कि निगरानी करने और सही निर्देश की।
बच्चा जब पहली बार स्कूल से चोट लगवा कर या रोता हुआ लौटता है तो स्वाभाविक रूप से माँ कारण पूछती है की चोट कैसे लगी या उसे किस लड़के या लड़की ने मार पीटा है? बच्चा माँ का वात्सल्य पाकर काफी राहत महसूश करता है। वह साड़ी बात माँ को बताता है मसलन, उसे उसके किसी सहपाठी ने बेवजह पीटा है, खेलते समय उसे धकेल दिया, जिससे वह जख्मी हो गया। हो सकता है आपका बच्चा कक्षा में या स्कूल बस में दुसरे बच्चों पर रौब झाड़ता है या मार – पीट करता है। आप न तो उसे इतना सहनशील बनाएं की चुपचाप पीटता रहे न ही उसे ऐसी शिक्षा दें की वह पीटने की अपेक्षा पीटकर लौटे। कई माता पिता पसंद नहीं करते की उसका बच्चा दुसरे से पीटकर घर लौटे और उन्हें शिकायत लेकर सम्बंधित टीचर वगैरह के पास जाना पड़े। वे अपने बच्चे को ताकीद कर देते हैं की अपना झगड़ा स्वयं निबटा कर आये। कई अभिभावकों को साफ़ – साफ़ कहते देखा गया है, “तुम रोज रोज बच्चों से पिट कर आते हो पलट कर तुम क्यों नहीं उन्हें मारते, तुम कम ताकतवर हो क्या?” कई माता पिता तो बच्चे को उकसाते हैं यह कहकर, “खबरदार जो अगली बार रोते हुए घर लौटे। कोई तुम्हे मारता है तो तुम भी उसे मारो आखिर तुम्हारे पास भी हाथ पाएं हैं और वह क्या (मारने वाला) अधिक ताक़तवर है?”
कई माएं कहती सुनी जाती हैं, “बेटे खुद किसी से झगड़ा शुरू मत करो, किसी को मारो पीटो नहीं, पर यदि कोई पहल करता है, तुम्हे मारता है तो तुम भी मारो”। हम शिकायत लेकर जाएंगे तो अच्छा नहीं लगेगा लोग कहेंगे की छोटी छोटी बात पर माँ बाप उठकर चले आते हैं।
उपरोक्त जितने भी तथ्य हैं समीचीन नहीं हैं। बच्चा स्कूल से या बाहर से पिट कर या चोट खाकर लौटता है तो मात पिता को चाहिए कि उससे बात करें। उसमे इतना विश्वास जताएं कि वह अपने स्कूल में होने वाली अच्छी और बुरी हर घटना आपको बताये। बात कि तह तक जाएँ। आपको मालूम चल जाएगा कि आपका बच्चा पीटकर आया है या वह स्वयं दूसरों पर हावी होता है। हर किसी पर अपने दादागिरी थोपता है। किसी के प्रतिकार करने पर हिंसा पर उतर आता है। बच्चे कि हिंसात्मक गतिविधियाँ दिनोंदिन बढ़ती जाएँ। स्कूल से उसकी शिकायत आने लगे और आपके समझाने बुझाने का उस पर कोई असर न पड़े तो जरूरत है संजीदगी से इस मसले पर गौर करने की। उसके अधयापक से मिलकर विचार विमर्श करें। तभी किसी नतीजे पर पहुंचा जा सकता है।
यदि बच्चा कभी किसी परिस्थिति विशेष में ही अपरिहार्य स्थिति में आक्रोश दिखाता है तो वह हिंसक नहीं कहा जायेगा। यदि बच्चा जान बूझकर बात – बे – बात क्रोध दिखाता है मार पिट पर उतारू रहता है, दूसरों को शारीरिक रूप से कष्ट पहुंचाता है।
कुछ बच्चे अपने हम-उम्र बच्चों से छोटे, कमजोर होते हैं इसीलिए उन्हें घर पर अत्येधिक प्यार दुलार और तवज्जो दी जाती है, जिस कारण घर से बाहर वे अपेक्षित ध्यान न दिए जाने पर चीखते चिल्लाते हैं या मार – पीट करते हैं।
बच्चों में बढ़ती आक्रमकता के कारण निम्नलिखित हैं:
स्कूल सिस्टम
प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक डॉ समीर पारिख बच्चों में बढ़ती आक्रामकता के लिए स्कूल सिस्टम को दोषी मानते हैं। एक कक्षा में ४० – ५० और किसी कक्षा में तो ६० तक बच्चे होते हैं। उनके ऊपर मात्र एक अध्यापक होता है। कक्षा के उदंड बच्चे पूरी कक्षा को डिस्टर्ब करते हैं। पढाई में ध्यान नहीं देते। इस वजह से माता – पिता भी उन्हें डांटते फटकारते हैं। सब तरफ से प्रताड़ना पाकर बच्चा अधिक आक्रामक हो जाता है।
बच्चों से अतिरिक्त अपेक्षा
बच्चे से उसके घरवाले अतिरिक्त अपेक्षा करते हैं मसलन ३-४ साल के बच्चे के लिए स्कूल, आकर शिकायत करते हैं कि उसमें आत्मविश्वास कि कमी है जबकि विशेषज्ञों के मतानुसार बच्चे में आत्मविश्वास ६ साल कि उम्र से विकसित होता है। इसलिए अभिभावकों का उनके लिए चिंता करना वाजिब नहीं है।
बच्चों पर अनावश्यक दोषारोपण
कुछ बच्चे जो उदंड और शरारती होते हैं वे अक्सर ब्लैक लिस्ट हो जाते हैं। कोई भी गलत काम होने पर शक कि सुई उन पर जाती है। भले ही उनका उस से दूर-दूर का वास्ता न हो। जब निर्दोष होने पर भी उन पर दोषारोपण किया जाता है तब वे प्रतिक्रियास्वरूप आक्रामकता दिखाते हैं। यदि ध्यान न दिया जाये तो आक्रमकता उनके स्वभाव में सुमार हो जाती है।
समाधान
बच्चे कि क्षमता का आकलन
सर्वप्रथम बच्चे कि क्षमता के अनुसार माता – पिता और अध्यापकों को मिलकर प्रयास करना चाहिए। बच्चा किन बातों से भडकता है कहीं वह घर और बाहर (स्कूल में) मिल रही उपेक्षा कि वजह से तो आक्रामक नहीं हो रहा है?
पढाई के बीच ब्रेक दें
देखने में आता है कि स्कूल टाइम में बच्चे अतिरिक्त गतिविधि (चाहे वह गेम्स का पीरियड ही क्यों न हो) में उतना आनंदित नहीं होते जितना अर्धावकाश (लंच टाइम) में। इसीलिए बीच बीच में बच्चे को इस प्रकार ब्रेक देने से उसकी ऊर्जा बढ़ती है, वह बोर नहीं होता और मन लगाकर कार्य करता है।
काउंसलिंग कि जरुरत
बच्चों को ही नहीं उनके माता पिता को भी समय समय पर किसी मनोविश्लेषक के पास जाकर काउंसलिंग करनी चाहिए, इससे वे अपने बच्चों को सही परवरिश कर सकेंगे।