वाकपटुता कहें, हाज़िरजवाबी कहें या sense of humor कह लें। यह कोई ऐसा गुण नहीं है जिसे राजनीतिक अहर्ताओं में शुमार किया जाता हो।
लेकिन यह भी सच है कि इसमें पारंगत नेताओं ने इसका सफल राजनीतिक इस्तेमाल भी किया। दिवंगत अटल बिहारी वाजपेयी की गिनती उनमें बिना किसी शुबहे के की जा सकती है। वह अपनी वाकपटुता से न सिर्फ़ मुश्किल सवालों से बच जाते थे, बल्कि कई बार पूरे मुद्दे को ही नाकुच कर देते थे। कई बार दूसरे पाले में खड़ा व्यक्ति भी असल बात भूलकर खिलखिला देता था या उनकी हाज़िरजवाबी की रपटीली राह पर फिसल बैठता था।
उनकी ज़िंदग़ी के कुछ ऐसे ही क़िस्से दरपेश हैं, जिनमें उन्होंने भाषा और विनोद के शानदार इस्तेमाल की मिसाल पेश की।
‘पंडित जी शीर्षासन करते हैं’
अटल बिहारी वाजपेयी 1957 में पहली बार सांसद हो गए थे। तब जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री हुआ करते थे। तब अटल को संसद में बोलने का बहुत वक़्त नहीं मिलता था, लेकिन अच्छी हिंदी से उन्होंने अपनी पहचान बना ली थी। नेहरू भी वाजपेयी की हिंदी से प्रभावित थे।
वह उनके सवालों का जवाब संसद में हिंदी में ही देते थे। विदेश नीति हमेशा उनका प्रिय विषय रहा। एक बार नेहरू ने जनसंघ की आलोचना की तो जवाब में अटल ने कहा, “मैं जानता हूं कि पंडित जी रोज़ शीर्षासन करते हैं। वह शीर्षासन करें, मुझे कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन मेरी पार्टी की तस्वीर उल्टी न देखें। इस बात पर नेहरू भी ठहाका मारकर हंस पड़े।”
Atal Ji’s poems have deep roots in the India tradition. Here is one that describes a typical rural Indian house hold of the yester years. It is a picture that we are sadly losing rapidly under the pressure of “modernization”
आओ मन की गांठें खोलें: अटल बिहारी वाजपेयी
घास–फूस का घर डंडे पर,
गोबर से लीपे आँगन मेँ,
तुलसी का बिरवा, घंटी स्वर,
माँ के मुंह मेँ रामायण के दोहे चौपाई रस घोलें,
आओ मन की गांठें खोलें।
बाबा की बैठक मेँ बिछी
चटाई बाहर रखे खड़ाऊं,
मिलने वालोँ के मन मेँ
असमंजस, जाऊँ या न जाऊँ?
माथे तिलक, आँख पर अनेक, पोथी खुली स्वयम से बोलें,
आओ मन की गांठें खोलें।
सरस्वती की देख साधना,
लक्ष्मी ने संबंध न जोड़ा,
मिट्टी ने माथे के चंदन,
बनने का संकल्प न छोड़ा,
नये वर्ष की अगवानी मेँ, टुक रुक लें, कुछ ताजा हो लें,
आओ मन की गांठें खोलें।