अच्छा नहीं लगता - संतोष यादव ‘अर्श’

अच्छा नहीं लगता – संतोष यादव ‘अर्श’

ये उड़ती रेत का सूखा समाँ अच्छा नहीं लगता
मुझे मेरे खुदा अब ये जहाँ अच्छा नहीं लगता।

बहुत खुश था तेरे घर पे‚ बहुत दिन बाद आया था
वहाँ से आ गया हूँ तो यहाँ अच्छा नहीं लगता।

वो रो–रो के ये कहता है मुहल्ले भर के लोगों से
यहाँ से तू गया है तो यहाँ अच्छा नहीं लगता।

बहुत लगती थी पहले‚ अब तबीयत ही नहीं लगती
वहाँ सब कुछ है लेकिन अब वहाँ अच्छा नहीं लगता।

इसे रख दे‚ उठा ले हाथ में फूलों का इक गुच्छा
तेरे हाथों में ये तीरोकमाँ अच्छा नहीं लगता।

अगर हो तीसरी दुनियाँ‚ बुला लेना मुझे पहले
मेरे अल्लाह मुझे दोनों जहाँ अच्छा नहीं लगता।

ये हँसते मुस्कुराते लोग बेशक प्यारे लगते हैं
खिले चेहरे मुखातिब हों कहाँ अच्छा नहीं लगता।

∼ संतोष यादव ‘अर्श’

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