तीसरा अंक — अश्वत्थामा का अर्धसत्य
संजय का रथ जब नगर–द्वार पहुंचा
तब रात ढल रही थी।
हारी कौरव सेना कब लौटेगी…
यह बात चल रही थी।
संजय से सुनते–सुनते युद्ध–कथा
तब रात ढल रही थी।
हारी कौरव सेना कब लौटेगी…
वह बात चल रही थी।
संजय से सुनते–सुनते युद्ध–कथा
हो गयी सुबह! पाकर यह गहन व्यथा
गान्धारी पत्थर थी! उस श्रीहत मुख पर
जीवित मानव–सा कोई चिहृन न था।
दुपहर होते–होते हिल उठा नगर
खंडित रथ टूटे छकड़ों पर लद कर
थे लौट रहे ब्राहृमण, स्त्रियाँ, चिकित्सक,
विधवाएँ, बौने, बूढ़े, घायल, जर्जर।
जो सेना रंगबिरंगी ध्वजा उड़ाते
रौंदते हुए धरती को, गगन कँपाते
थी गयी युद्ध को अठ्ठारह दिन पहले
उसका यह रूप हो गया आते–आते।