अंधा युग - धर्मवीर भारती

अंधा युग – धर्मवीर भारती

चौथा अंक — गांधारी का शाप

वे शंकर थे
वे रौद्र–वेशधारी विराट
प्रलयंकर थे
जो शिविर–द्वार पर दीखे
अश्वत्थामा को
अनगिनत विष भरे साँप
भुजाओं पर
बाँधे
वे रोम–रोम अगणित
महाप्रलय
साधे
जो शिविर द्वार पर दीखे
अश्वत्थामा को
बोले वे जैसे प्रलय–मेघ–गर्जन–स्वर
“मुझको पहले जीतो तब जाओ अंदर!”
युद्ध किया अश्वत्थामा ने पहले
है और कौन जो दिव्यास्त्रों को सह ले
शर, शक्ति, प्रास, नाराच, गदाएँ सारी
लो क्रोधित हो अश्वत्थामा ने मारी
वे उनके एक रोम में
समा गयीं
सब
वह हार मान वन्दना
लगा करने
तब

वे छोड़ चले कौरव–नगरी को निर्जन
वे छोड़ चले वह रत्नजटित सिंहासन
जिसके पीछे था युद्ध हुआ इतने दिन
सूनी राहें, चौराहे या घर, आँगन

जिस स्वर्ण–कक्ष में रहता था दुर्योधन
उसमें निर्भय वनपशु करते थे विचरण
वे छोड़ चले कौरव नगरी को निर्जन
करने अपने सौ मृत पुत्रों का तर्पण

आगे रथ पर कौरव विधवाओं को ले
है चली जा चुकी कौरव–सेना सारी
पीछे पैदल आते हैं शीश झुकाये
धृतराष्ट्र, युयुत्सु, विदुर, संजय, गान्धारी

गांधारी का शाप और प्रभु श्री कृष्ण का शाप को स्वीकारना

गांधारी और धृतराष्ट्र मृत दुर्योधन के अंतिम संस्कार के लिए उस तालाब के किनारे जाते हैं जिसमे घायल दुर्योधन छिपा था और जिसके किनारे भीम औए दुर्योधन में मल युद्ध में दुर्योधन की मृत्यु हुई।

गांधारी  ह्रदय–विदारक स्वर में
तो, वह पड़ा है कंकाल मेरे पुत्र का
किया है यह सब कुछ कृष्ण
तुमने किया है सब
सुनो!
आज तुम भी सुनो
मैं तपस्विनी गांधारी
अपने सारे जीवन के पुण्यों का
अपने सारे पिछले जन्मों के पुण्यों का
बल लेकर कहती हूँ
कृष्ण सुनो!
तुम यदि चाहते तो रूक सकता था युद्ध यह
मैंने प्रसव नहीं किया था कंकाल यह
इंगित पर तुम्हारे ही भीम ने अधर्म किया
क्यों नहीं तुमने वह शाप दिया भीम को
जो तुमने दिया अश्वत्थामा को
तुमने किया है प्रभुता का दुरूपयोग
यदि मेरी सेवा में बल है
संचित तप में धर्म हैं
प्रभु हो या परात्पर हो
कुछ भी हो
सारा तुम्हारा वंश
इसी तरह पागल कुत्तों की तरह
एक–दूसरे को परस्पर फाड़ खायेगा
तुम खुद उनका विनाश करके कई वर्षों बाद
किसी घने जंगल में
साधारण व्याध के हाथों मारे जाओगे
प्रभु हो
पर मारे जाओगे पशुओं की तरह।

वंशी ध्वनि: कृष्ण की आवाज

कृष्ण ध्वनि:
प्रभु हूँ या परात्पर
पर पुत्र हूँ तुम्हारा, तुम माता हो
मैंने अर्जुन से कहा
सारे तुम्हारे कर्मों का पाप–पुण्य, योगक्षेम
मैं वहन करूँगा अपने कंधों पर
अठ्ठारह दिनों के इस भीषण संग्राम में
कोई नहीं केवल मैं ही मरा हूँ करोड़ों बार
जितनी बार जो भी सैनिक भूमिशायी हुआ
कोई नहीं था
मैं ही था
गिरता था घायल होकर जो रणभूमि में।
अश्वत्थामा के अंगों से
रक्त, पीप, स्वेद बन कर बहूँगा
मैं ही युग–युगान्तर तक
जीवन हूँ मैं
तो मृत्यु भी तो मैं ही हूँ माँ
शाप यह तुम्हारा स्वीकार है।

गांधारी:
यह क्या किया तुमने
फूट–फूटकर रोने लगती है
रोई नहीं मैं अपने
सौ पुत्रों के लिए
लेकिन कृष्ण तुम पर
मेरी ममता अगाध है।
कर देते शाप यह मेरा तुम अस्वीकार
तो क्या मुझे दुःख होता?
मैं थी निराश, मैं कटु थी,
पुत्रहीना थी।

कृष्ण ध्वनि:
ऐसा मत कहो
माता
जब तक मैं जीवित हूँ
पुत्रहीना नहीं हो तुम।
प्रभु हूँ या परात्पर
पर पुत्र हूँ तुम्हारा
तुम माता हो।

(कथा-गायन)

स्वीकार किया यह शाप कृष्ण ने जिस क्षण से
उस क्षण से ज्योति सितारों की पड़ गयी मन्द
युग–युग की संचित मर्यादा निष्प्राण हुई
श्रीहीन हो गये कवियों के सब वर्ण–छन्द

यह शाप सुना सबने पर भय के मारे
माता गान्धारी से कुछ नहीं कहा
पर युग सन्ध्या की कलुषित छाया–जैसा
यह शाप सभी के मन पर टँगा रहा।

Check Also

National Philosophy Day: Date, History, Wishes, Messages, Quotes

National Philosophy Day: Date, History, Wishes, Messages, Quotes

National Philosophy Day: This day encourages critical thinking, dialogue, and intellectual curiosity, addressing global challenges …