पाँचवाँ अंक — विजय : एक क्रमिक आत्महत्या
दिन, हफ्ते, मास, बरस बीते : ब्रहृमास्त्रों से झुलसी धरती
यद्यपि हो आयी हरी–भरी
अभिषेक युधिष्ठिर का सम्पन्न हुआ, फिर से पर पा न सकी
खोयी शोभा कौरव–नगरी।
सब विजयी थे लेकिन सब थे विश्वास–ध्वस्त
थे सूत्रधार खुद कृष्ण किन्तु थे शापग्रस्त
इस तरह पांडव–राज्य हुआ आरम्भ पुण्यहत, अस्त–व्यस्त
थे भीम बुद्धि से मन्द, प्रकृति से अभिमानी
अर्जुन थे असमय वृद्ध, नकुल थे अज्ञानी
सहदेव अद्र्ध–विकसित थे शैशव से अपने
थे एक युधिष्ठिर जिनके चिन्तित माथे पर
थे लदे हुए भावी विकृत युग के सपने
थे एक वही जो समझे रहे थे क्या होगा
जब शापग्रस्त प्रभु का होगा देहावसान
जो युग हम सब ने रण में मिल कर बोया है
जब वह अंकुर देगा, ढँक लेगा सकल ज्ञान
सीढ़ी पर बैठे घुटनों पर माथा रक्खे
अक्सर डूबे रहते थे निष्फल चिन्तन में
देखा करते थे सूनी–सूनी आँखों से
बाहर फैले–फैले निस्तब्ध तिमिर घन में
यों गये बीतते दिन पांडव शासन के
नित और अशान्त युधिष्ठिर होते जाते
वह विजय और खोखली निकलती आती
विश्वास सभी घन तम में खोते जाते