प्रभु की मृत्यु
वंदना—
तुम जो हो शब्द–ब्रह्म, अर्थों के परम अर्थ जिसका
आश्रय पाकर वाणी होती न व्यर्थ है
तुम्हें नमन, है उन्हें नमन
करते आये हैं जो निर्मल मन
सदियों से लीला का गायन
हरि के रहस्यमय जीवन की!
है जरा अलग वह छोटी–सी
मेरी आस्था की पगडंडी
दो मुझे शब्द, दो रसानुभव, दो अलंकरण
मैं चित्रित करूँ तुम्हारा करूण रहस्य–मरण
वह था प्रभास वन – क्षेत्र, महासागर – तट पर
नभचुम्बी लहरें रह –रह खाती थीं पछाड़
था घुला समुद्री फेन समीर झकोरों में
बह चली हवा, वह खड़–खड़–खड़ कर उठे ताड़
थी वनतुलसा की गंध वहाँ, था पावन छायामय पीपल
जिसके नीचे धरती पर बैठे थे प्रभु शान्त, मौन, निश्चल
लगता था कुछ–कुछ थका हुआ वह नील मेघ–सा तन साँवल
माला के सबसे बड़े कमल में बची एक पँखुरी केवल
पीपल के दो चंचल पातों की छायाएँ
रह–रहकर उनके कंचन माथे पर हिलती थीं
वे पलकें दोनों तन्द्रालस थीं, अधखुल थीं
जो नील कमल की पाँखुरियों–सी खिलती थीं
अपनी दाहिनी जाँघ पर रख
मृग के मुख जैसा बायाँ पग
टिक गये तने से, ले उसाँस
बोले ‘कैसा विचित्र था युग!’
कुछ दूर कँटीली झाड़ी में
छिप कर बैठा था एक व्याध
प्रभु के पग को मृग–वदन समझ
धनु खींच लक्ष्य था रहा साथ।
बुझ गये सभी नक्षत्र, छा गया तिमिर गहन
वह और भयंकर लगने लगा भयंकर वन
जिस क्षण प्रभु ने प्रस्थान किया
द्वापर युग बीत गया उस क्षण
प्रभुहीन धरा पर आस्थाहत
कलियुग ने रक्खा प्रथम चरण
वह और भयंकर लगने लगा भयंकर वन।