और जो कोई नहीं होते‚
कहीं के नहीं होते–
झुण्ड बना कर बैठ जाते हैं कभी–कभी
बुझते अलावों के चारो तरफ ।
फिर अपनी बेडौल‚ खुरदुरी‚ अश्वस्त
हथेलियां पसार कर
वे सिर्फ आग नहीं तापते‚
आग को देते हैं आशीष
कि आग जिये‚
जहां भी बची है‚ वह जीती रहे
और खूब जिये!
बाज़ लोग जिनका कोई नहीं होता
और जो कोई नहीं होते‚
कहीं के नहीं होते–
झुण्ड बांध कर चलाते हैं फावड़े
और देखते देखते उनके
ऊबड़–खाबड़ पैरों तक
धरती की गहराइयों से
एकदम उमड़े आते हैं
पानी के सोते।
बाज़ लोग सारी बाजियां हार कर भी
होते हैं अलमस्त बाज़ीगर!