हम अक़सर कहते हैं, बचपन ही अच्छा था। कोई बड़ी परेशानी आती है और हमें किसी कारणवश उसका समाधान नहीं मिलता, तो यही भावना आती है, ‘बचपन ही अच्छा था’। अगर मैं अपनी बात करूं, तो मुझे तो कभी-कभी बच्चों से जलन भी होने लगती है।
बचपन ही अच्छा था: WhatsApp से ली गयी कविता
मम्मी ने ही उठाया है
अब अलार्म के सहारे उठता हूँ
सुबह चार बार स्नूज़ दबाया है
बिना नाश्ता किये मम्मी
घर से निकलने नहीं देती थी
कैंटीन मे कुछ खाने के लिये
पैसे अलग से देती थी
अब नाश्ता स्किप हो कर सीधा
लंच का नंबर आता है
फ्लैट मेट्स ने एक बंदा रखा है
नाश्ता वही बनाता है
आज आलू का परांठा बना था
परांठा फिर से कच्चा था
मैं खांमखां ही बड़ा हो गया
बचपन ही अच्छा था!
बस टैस्ट की टैंशन होती थी
या होम वर्क निबटाने की
न मीटिंग की कोई दिक्कत थी
न पौलिटिक्स सुलझाने की
नींद भी चैन से आती थी
मैं सपनों में खो जाता था
बिना बात के हँस हँस कर
कई लिटर खून बढ़ाता था
अब कौरपोरेट स्मइल देता हूँ
तब का मुस्काना सच्चा था
मैं खांमखां ही बड़ा हो गया
बचपन ही अच्छा था!
दोस्त भी तब के सच्चे थे
जान भी हाज़िर रखते थे
ज्यादा नंबर पर चिढ़ जाते थे
पर मुँह पर गाली बकते थे
कांम्पिटीशन तो तब भी था
बस स्ट्रेस के लिये जगह न थी
हर रोज ही हम लड़ लेते थे
पर लड़ने की कोई वजह न थी
अब दोस्ती भी है हिसाब की
किसने किस पर कितना खर्चा था
मैं खांमखां ही बड़ा हो गया
बचपन ही अच्छा था!