गति के पागलपन से प्रेरित चलती रहती संसृति महान्‚
सागर पर चलते है जहाज़‚ अंबर पर चलते वायुयान
भूतल के कोने–कोने में रेलों ट्रामों का जाल बिछा‚
हैं दौड़ रहीं मोटरें–बसें लेकर मानव का वृहद ज्ञान।
पर इस प्रदेश में जहां नहीं उच्छ्वास‚ भावनाएं‚ चाहें‚
वे भूखे‚ अधखाये किसान भर रहे जहां सूनी आहें
नंगे बच्चे‚ चिथड़े पहने माताएं जर्जर डोल रहीं
है जहां विवशता नृत्य कर रही धूल उड़ाती हैं राहें‚
बीबी–बच्चों से छीन‚ बीन दाना–दाना‚ अपने में भर
भूखे तड़पें य मरें‚ भरों का तो भरना है उसको घर!
धन की दानवता से पीड़ित कुछ फटा हुआ‚ कुछ कर्कश स्वर‚
चरमर चरमर चूं चरर–मरर जा रही चली भैंसागाड़ी !
तुम सुख–सुषमा के लाल‚ तुम्हारा है विशाल वैभव–विवेक‚
तुमने देखी हैं मान भरी उच्छृंखल सुंदरियां अनेक
तुम भरे–पुरे‚ तुम हृष्ट–पुष्ट हो तुम समर्थ कर्ता–हर्ता‚
तुमने देखा है क्या बोलो हिलता–डुलता कंकाल एक!
चांदी के टुकड़ों को लेने प्रतिदिन पिसकर‚ भूखों मरकर‚
भैंसागाड़ी पर लदा हुआ जा रहा चला मानव जर्जर
है उसे चुकाना सूद कर्ज‚ है उसे चुकान अपना कर‚
जितना खाली है उसका घर उतना खाली उसका अंतर।
नीचे जलने वाली पृथ्वी ऊपर जलने वाला अंबर‚
और कठिन भूख की आग लिये नर बैठा है बन कर पत्थर!
पीछे है पशुता का खंडहर‚ दानवता का सामने नगर‚
मानव का कृश कंकाल लिये…
चरमर चरमर चूं चरर–मरर जा रही चली भैंसागाड़ी!