चंद अशआर गुनगुनाते हैं – अरुणिमा

यों ही हम जहमतें उठाते हैं
चंद अशआर गुनगुनाते हैं

वे बताते हैं राह दुनियां को
अपनी गलियों को भूल जाते हैं

लेते परवाज़ अब नहीं ताइर
सिर्फ पर अपने फड़फड़ाते हैं

पांव अपने ही उठ नहीं पाते
वे हमे हर लम्हें बुलाते हैं

आप कहते हैं –क्या कलाम लिखा?
और हम हैं कि मुस्कुराते हैं

जिनको दरिया डुबो नहीं पाया
एक चुल्लू में डूब जाते हैं

उसके होठों की मय कभी पी थी
उम्र गुजरी है‚ लड़खड़ाते हैं

एक तस्वीर का सहारा ले
अपनी तन्हाइयां बिताते हैं

दर्द सीने में जब भी उठता है
ढाल लफ़्जों में हम सुनते हैं

∼ अरुणिमा

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