जाली में बांध गई केसरिया शाम
दर्द फूटना चाहा
अनचाहे छंद मिले
दरवाज़े बंद मिले।
गंगाजल पीने से हो गया पवित्र
यह सब मृगतृष्णा है‚ मृगतृष्णा मित्र
नहीं टूटना चाहा
शायद फिर गंध मिले
दरवाज़े बंद मिले।
धीरे से बोल गई गमले की नागफनी
साथ रहे विषधर पर चंदन से नहीं बनी
दर्द लूटना चाहा
नये–नये द्वंद मिले
दरवाज़े बंद मिले।
∼ नरेंद्र चंचल
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