दीदी का भालू - राजीव कृष्ण सक्सेना

दीदी का भालू – राजीव कृष्ण सक्सेना

दीदी के कमरे में, दीदी संग रहते थे
दीदी का कुत्ता भी, बंदर भी, भालू भी

छोटी सी थी बिटिया, जब वे घर आए थे
नन्हीं दीदी पा कर, बेहद इतराए थे

वैसे तो रूई से भरे वे खिलौने थे
दीदी की नजरों में प्यारे से छौने थे

सुबह सुबह दीदी जब जाती बस्ता लेकर
ऊंघते हुए तीनो अलसाते बिस्तर पर

दोपहरी को दीदी जब भी वापस आती
तीनो को खिड़की पर टंगा हुआ ही पाती

लटके फिर दीदी के कंधों पर वे आते
दीदी की थाली में, दीदी के संग खाते

जो भी करती दीदी, वे भी जुट जाते थे
दीदी के इर्द गिर्द हरदम मंडराते थे

रूठने मनाने के, उपक्रम में मस्त कभी
चटर–पटर, चटर–पटर, बातें भी झगड़े भी

निर्णय अंतिम लेकिन दीदी का होता था
इस बारे में सचमुच, पूरा समझौता था

बड़ी हुई दीदी फिर, स्कूली दिन बीत गए
समय के कुहासे में, बचपन के मीत गए

घर पर अब वास नहीं, ऐसा बतलाती थीं
हाथों की रेखाएं, दूर देश जातीं थीं

भरे गले से उसने, उनको समझाया था
मुझे दूर जाना है, ऐसा बतलाया था

“अच्छे बच्चों जैसे मलजुल कर तुम रहना
रखना तुम याद सदा दीदी का यह कहना”

“एक रोज़ फिर देखो वापस मैं आऊंगी
मजेदार बातें फिर ढेर सी बताऊंगी”

बिटिया का कमरा अब कभी–कभी खुलता है
झाड़–पोंछ कभी–कभी, फर्श कभी धुलता है

दबे पांव कभी–कभी मैं अंदर जाता हूं
तीनो को गुमसुम सा चुप बैठा पाता हूं

सोचते यही होंगे, दीदी का वादा था
वापस आ जाने का एक दिन इरादा था

अच्छे बच्चों जैसे, रहते हैं हम भाई
फिर भी दीदी अब तक, लौट कर नहीं आई

तकियों पर टिके हुए, दूर कहीं तकते हैं
कुछ कुछ चिंतित लगते, कुछ कुछ शंकालू भी

दीदी कब आएगी, सोच यही सकते हैं
दीदी का कुत्ता भी, बंदर भी, भालू भी

∼ राजीव कृष्ण सक्सेना

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