फिर हरे हरे खेतों पर छाया आसमान‚
उजली कुँआर की धूप अकेली पड़ी हार में‚
लौटे इस बेला सब अपने घर किसान।
पागुर करती छाहीं में कुछ गंभीर अधखुली आँखों से
बैठी गायें करती विचार‚
सूनेपन का मधु–गीत आम की डाली में‚
गाती जातीं भिन्न कर ममाखियाँँ लगातार।
भर रहे मकाई ज्वार बाजरे के दाने‚
चुगती चिड़ियाँ पेड़ों पर बैठीं झूल–झूल‚
पीले कनेर के फूल सुनहले फूले पीले‚
लाल–लाल झाड़ी कनेर की लाल फूल।
बिकसी फूटें‚ पकती कचेलियां बेलों में‚
ढो ले आती ठंडी बयार सोंधी सुगंध‚
अन्तस्तल में फिर पैठ खोलती मनोभवन के‚
वर्ष–वर्ष से सुधि के भूले द्वार बंद।
तब वर्षों के उस पार दीखता‚ खेल रहा वह‚
खेल–खेल में मिटा चुका है जिसे काल‚
बीते वर्षों का मैं जिसको है ढँके हुए
गाढ़े वर्षों की छायाओं का तंतु–जाल।
देखती उसे तब अपलक आँखे‚ रह जातीं
~ राम विलास शर्मा
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