उड़ने लगी बुझे खेतों से
झुर झुर सरसों की रंगीनी,
धूसर धूप हुई मन पर ज्यों –
सुधियों की चादर अनबीनी,
दिन के इस सुनसान पहर में रुकसी गई प्रगति जीवन की।
सांस रोक कर खड़े हो गये
लुटे–लुटे से शीशम उन्मन,
चिलबिल की नंगी बाहों में
भरने लगा एक खोयापन,
बड़ी हो गई कटु कानों को “चुर–मुर” ध्वनि बांसों के बन की।
थक कर ठहर गई दुपहरिया,
रुक कर सहम गई चौबाई,
आंखों के इस वीराने में
और चमकने लगी रुखाई,
प्रान, आ गए दर्दीले दिन, बीत गईं रातें ठिठुरन की।
~ केदार नाथ सिंह
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