अपना तो इतना सामान ही रहा
चुभन और दंशन पैने यथार्थ के
पग–पग पर घेरे रहे प्रेत स्वार्थ के
भीतर ही भीतर मैं बहुत ही दहा
किंतु कभी भूले से कुछ नहीं कहा
एक चाय की चुस्की, एक कहकहा
एक अदद गंध, एक टेक गीत की
बतरस भीगी संध्या बातचीत की
इन्हीं के भरोसे क्या क्या नहीं सहा
छू ली है सभी एक–एक इंतहा
एक चाय की चुस्की, एक कहकहा
एक कसम जीने की, ढेर उलझनें
दोनों गर नहीं रहे, बात क्या बने
देखता रहा सब कुछ सामने ढहा
मगर कभी किसी का चरण नहीं गहा
एक चाय की चुस्की, एक कहकहा