गंगाजल अंजलि में भरकर, सूरज का मुख धुलवायें।
घना कुहासा, गहन अँधेरा, नया सवेरा ले आयें।।
देश मेरे में बरसों से ही, नदी आग की बहती है।
खून की धरा से हो लथपथ, धरती ही दुख सहती है।
शमशानों के बिना धरा पर, जलती है कितनी लाशें
हर मानव के मन में दबी सी, कुछ तो पीड़ा रहती है।
अब धरती का दुख हरने को कुछ हरियाली बो जायें।
गंगाजल अंजलि में भरकर, सूरज का मुख धुलवायें।
मौन बिछा जाता है पलपल, पर हँसने की बात कहाँ?
होठों को मुसकान मिले पर, अपनी है औकात कहाँ?
इसने, उसने, तुमने मैंने, सब कुछ चौपट कर डाला।
कोई किसी को प्यार बाँट दे, ऐसी अब सौगात कहाँ?
चीखों और कराहों में अब, हम न बिलकुल खो जायें।
गंगाजल अंजलि में भरकर, सूरज का मुख धुलवायें।
ग्रहण लगे सूरज ने कल ही, बस इतना संकेत दिया।
चन्दा पूछ रहा मानव से, किसने रक्त को श्वेत किया।
आतंकित हो भय पनपा है, तारों ने गणना की है–
अम्बर से बारूदी धुँए का अब तो आकेत लिया।
कैसा समय घिनौना ‘रत्नम’, चलकर घर तक हो आयें
गंगाजल अंजलि में भरकर, सूरज का मुख धुलवायें।