वृद्ध–नीमों–पीपलों की छाँव जाकर क्या करेंगे?
जानता हूँ मैं कि मेरे पूर्वजों की भूमि है वह
और फुरसत में सताती है वहाँ की याद रह–रह
ढह चुकी पीढ़ी पुरानी, नई शहरों में बसी है
गाँव ऊजड़ हो चुका, वातावरण में बेबसी है
यदि कहूँ संक्षेप में तो जहाँ मकड़ी वहीं जाली
जहाँ जिसकी दाल– रोटी, वहीं लोटा और थाली
शहर क्या है, व्यावसायिक सभ्यता का जुआघर है
हार बैठे हैं सभी जब दाँव, जाकर क्या करें
गाँव जाकर क्या करेंगे?
अनगिनत विद्युत शिखाओं में दिए को कौन देखे
गीत –नृत्यों की सभा में मर्सिए को कौन देखे
राजपथ को छोड़कर पगडण्डियों तक कौन आए
छोड़कर बहुमंजिले, कच्चे घरों में कौन जाए
छोड़कर मुद्रित किताबें पाण्डुलिपियाँ कौन बाचे
तरण–तालों को भुला नदिया किनारे कौन नाचे
छोडकर टी. वी. सीनेमा होटलों की जगमगाहट
सिर्फ कागा की जहाँ है काँव, जाकर क्या करगें
गाँव जाकर क्या करेंगे?
गाँव जंगल में बसा, अब तक सड़क पहुची नहीं है
तड़क नल की और बिज़ली की भड़क पहुँची नहीं है
डाकुओं का घर वहाँ है, कष्ट का सागर वहाँ है
है कुएँ सौ हाथ गहरे, दर्द की गागर वहाँ है
भग्न–सा मन्दिर पड़ा है, एक–सी होली–दिवाली
देवता की मूर्ति भी तो मूर्ति–चोरों ने चुराली
वे चरण भी तो नहीं, छू कर जिन्हें आशीष पाते
सिर छिपाने को नहीं है ठाँव, जाकर क्या करगें
गाँव जाकर क्या करेंगे?