चतुर्थ सर्ग: सगकाँटों
पर मृदु कोमल फूल,
पावक की ज्वाला पर तूल।
सुई–नोक पर पथ की धूल,
बनकर रहता था अनुकूल ॥१॥
बाहर से करता सम्मान,
बह अजिया–कर लेता था न।
कूटनीति का तना वितान,
उसके नीचे हिन्दुस्तान ॥२॥
अकबर कहता था हर बार –
हिन्दू मजहब पर बलिहार।
मेरा हिन्दू स्ो सत्कार;
मुझसे हिन्दू का उपकार ॥३॥
यही मौलवी से भी बात,
कहता उत्तम है इस्लाम।
करता इसका सदा प्रचार,
मेरा यह निशि–दिन का काम ॥४॥
उसकी यही निराली चाल,
मुसलमान हिन्दू सब काल।
उस पर रहते सदा प्रसन्न,
कहते उसे सरल महिपाल ॥५॥
कभी तिलक से शोभित भाल,
साफा कभी शीश पर ताज।
मस्जिद में जाकर सविनोद,
पढ़ता था वह कभी नमाज ॥६॥
एक बार की सभा विशाल,
आज सुदिन, शुभ–मह, शुभ–योग।
करने आये धर्म–विचार,
दूर दूर से ज्ञानी लोग ॥७॥
तना गगन पर एक वितान,
नीचे बैठी सुधी–जमात।
ललित–झाड़ की जगमग ज्योति,
जलती रहती थी दिन–रात ॥८॥
एक ओर पण्डित–समुदाय,
एक ओर बैठे सरदार।
एक ओर बैठा भूपाल,
मणि–चौकी पर आसन मार ॥९॥
पण्डित–जन के शास्त्र–विचार,
सुनता सदा लगातार ध्यान।
हिला हिलाकर शिर सविनोद,
मन्द मन्द करता मुसकान ॥१०॥
कभी मौलवी की भी बात,
सुनकर होता मुदित महान््।
मोह–मग्न हो जाता भूप,
कभी धर्म–मय सुनकर गान ॥११॥
पाकर मानव सहानुभूति,
अपने को जाता है भूल।
वशीभूत होकर सब काम,
करता है अपने प्रतिकूल ॥१२॥
माया बलित सभा के बीच,
यही हो गया सबका हाल।
जादू का पड़ गया प्रभाव,
सबकी मति बदली तत्काल ॥१३॥
एक दिवस सुन सब की बात,
उन पर करके क्षणिक विचार।
बोल उठा होकर गम्भीर –
सब धमोर्ं से जन–उद्धार ॥१४॥
पर मुझसे भी करके क्लेश,
सुनिए ईश्वर का सन्देश।
मालिक का पावन आदेश,
उस उपदेशक का उपदेश ॥१५॥
प्रभु का संसृति पर अधिकार,
उसका मैं धावन का अविकार।
यह भव–सागर कठिन अपार,
दीन–इलाही से उद्धार ॥१६॥
इसका करता जो विश्वास,
उसको तनिक न जग का त्रास।
उसकी बुझ जाती है प्यास,
उसके जन्म–मरण का नाश ॥१७॥
इससे बढ़ा सुयश–विस्तार,
दीन–इलाही का सत्कार।
बुध जन को तब राज–विचार,
सबने किया सभय स्वीकार ॥१८॥
हिन्दू–जनता ने अभिमान,
छोड़ा रामायण का गान।
दीन–इलाही पर कुबार्न,
मुसलमान से अलग कुरान ॥१९॥
तनिक न बा`ह्मण–कुल उत्थान,
रही न क्षत्रियपन की आन।
गया वैश्य–कुल का सम्मान,
शूद्र जाति का नाम–निशान ॥२०॥
राणा प्रताप से अकबर से,
इस कारण वैर–विरोध बढ़ा।
करते छल–छल परस्पर थे,
दिन–दिन दोनों का क्रोध बढ़ा ॥२१॥
कूटनीति सुनकर अकबर की,
राणा जो गिनगिना उठा।
रण करने के लिए शत्रु से,
चेतक भी हिनहिना उठा ॥२२॥