त्रयोदश सर्ग: सगजो
कुछ बचे सिपाही शेष,
हट जाने का दे आदेश।
अपने भी हट गया नरेश,
वह मेवाड़–गगन–राकेश ॥१॥
बनकर महाकाल का काल,
जूझ पड़ा अरि से तत्काल।
उसके हाथों में विकराल,
मरते दम तक थी करवाल ॥२॥
उसपर तन–मन–धन बलिहार
झाला धन्य, धन्य परिवार।
राणा ने कह–कह शत–बार,
कुल को दिया अमर अधिकार ॥३॥
हाय, ग्वालियर का सिरताज,
सेनप रामसिंह अधिराज।
उसका जगमग जगमग ताज,
शोणित–रज–लुiण्ठत है आज ॥४॥
राजे–महराजे–सरदार,
जो मिट गये लिये तलवार।
उनके तर्पण में अविकार,
आंखों से आंसू की धार ॥५॥
बढ़ता जाता विकल अपार
घोड़े पर हो व्यथित सवार।
सोच रहा था बारम्बार,
कैसे हो मां का उद्धार ॥६॥
मैंने किया मुगल–बलिदान,
लोहू से लोहित मैदान।
बचकर निकल गया पर मान,
पूरा हो न सका अरमान ॥७॥
कैसे बचे देश–सम्मान
कैसे बचा रहे अभिमान!
कैसे हो भू का उत्थान,
मेरे एकलिंग भगवान ॥८॥
स्वतन्त्रता का झगड़ा तान,
कब गरजेगा राजस्थान!
उधर उड़ रहा था वह वाजि,
स्वामी–रक्षा का कर ध्यान ॥९॥
उसको नद–नाले–चट्टान,
सकते रोक न वन–वीरान।
राणा को लेकर अविराम,
उसको बढ़ने का था ध्यान ॥१०॥
पड़ी अचानक नदी अपार,
घोड़ा कैसे उतरे पार।
राणा ने सोचा इस पार,
तब तक चेतक था उस पार ॥११॥
शक्तसिंह भी ले तलवार
करने आया था संहार।
पर उमड़ा राणा को देख
भाई–भाई का मधु प्यार ॥१२॥
चेतक के पीछे दो काल,
पड़े हुए थे ले असि ढाल।
उसने पथ में उनको मार,
की अपनी पावन करवाल ॥१३॥
आगे बढ़कर भुजा पसार,
बोला आंखों से जल ढार।
रूक जा, रूक जा, ऐ तलवार,
नीला–घोड़ारा असवार ॥१४॥
पीछे से सुन तार पुकार,
फिरकर देखा एक सवार।
हय से उतर पड़ा तत्काल,
लेकर हाथों में तलवार ॥१५॥
राणा उसको वैरी जान,
काल बन गया कुन्तल तान।
बोला ्”कर लें शोणित पान,
आ, तुझको भी दें बलिदान्” ॥१६॥
पर देखा झर–झर अविकार
बहती है आंसू की धार।
गर्दन में लटकी तलवार,
घोड़े पर है शक्त सवार ॥१७॥
उतर वहीं घोड़े को छोड़,
चला शक्त कम्पित कर जोड़।
पैरों पर गिर पड़ा विनीत,
बोला धीरज बन्धन तोड़ ॥१८॥
्”करूणा कर तू करूणागार,
दे मेरे अपराध बिसार।
या मेरा दे गला उतार,
्”तेरे कर में हैं तलवार्” ॥१९॥
यह कह–कहकर बारंबार,
सिसकी भरने लगा अपार।
राणा भी भूला संसार,
उमड़ा उर में बन्धु दुलार ॥२०॥
उसे उठाकर लेकर गोद,
गले लगाया सजल–समोद।
मिलता था जो रज में प्रेम,
किया उसे सुरभित–सामोद ॥२१॥
लेकर वन्य–कुसुम की धूल,
बही हवा मन्थर अनुकूल।
दोनों के सिर पर अविराम,
पेड़ों ने बरसाये फूल ॥२२॥
कल–कल छल–छल भर स्वर–तान,
कहकर कुल–गौरव–अभिमान।
नाले ने गाया स–तरंग,
उनके निर्मल यश का गाना ॥२३॥
तब तक चेतक कर चीत्कार,
गिरा धर पर देह बिसार।
लगा लोटने बारम्बार,
बहने लगी रक्त की धार ॥२४॥
बरछे–असि–भाले गम्भीर,
तन में लगे हुए थे तीर।
जर्जर उसका सकल शरीर,
चेतक था व्रण–व्यथित अधीर ॥२५॥
करता धावों पर दृग–कोर,
कभी मचाता दुख से शोर।
कभी देख राणा की ओर,
रो देता, हो प्रेम–विभोर ॥२६॥
लोट–लोट सह व्यथा महान््,
यश का फहरा अमर–निशान।
राणा–गोदी में रख शीश
चेतक ने कर दिया पयान ॥२७॥
घहरी दुख की घटा नवीन,
राणा बना विकल बल–हीन।
लगा तलफने बारंबार
जैसे जल–वियोग से मीन ॥२८॥
्”हां! चेतक, तू पलकें खोल,
कुछ तो उठकर मुझसे बोल।
मुझको तू न बना असहाय
मत बन मुझसे निठुर अबोल ॥२९॥
मिला बन्धु जो खोकर काल
तो तेरा चेतक, यह हाल!
हा चेतक, हा चेतक, हाय्”,
कहकर चिपक गया तत्काल ॥३०॥
्”अभी न तू तुझसे मुख मोड़,
न तू इस तरह नाता तोड़।
इस भव–सागर–बीच अपार
दुख सहने के लिए न छोड़ ॥३१॥
बैरी को देना परिताप,
गज–मस्तक पर तेरी टाप।
फिर यह तेरी निद्रा देख
विष–सा चढ़ता है संताप ॥३२॥
हाय, पतन में तेरा पात,
क्षत पर कठिन लवण–आघात।
हा, उठ जा, तू मेरे बन्धु,
पल–पल बढ़ती आती रात ॥३३॥
चला गया गज रामप्रसाद,
तू भी चला बना आजाद।
हा, मेरा अब राजस्थान
दिन पर दिन होगा बरबाद ॥३४॥
किस पर देश करे अभिमान,
किस पर छाती हो उत्तान।
भाला मौन, मौन असि म्यान,
इस पर कुछ तो कर तू ध्यान ॥३५॥
लेकर क्या होगा अब राज,
क्या मेरे जीवन का काज?्”
पाठक, तू भी रो दे आज
रोता है भारत–सिरताज ॥३६॥
तड़प–तड़प अपने नभ–गेह
आंसू बहा रहा था मेह।
देख महाराणा का हाल
बिजली व्याकुल, कम्पित देह ॥३७॥
घुल–घुल, पिघल–पिघलकर प्राण,
आंसू बन–बनकर पाषाण।
निझर्र–मिस बहता था हाय
हा, पर्वत भी था मि`यमाण ॥३८॥
क्षण भर ही तक था अज्ञान,
चमक उठा फिर उर में ज्ञान।
दिया शक्त ने अपना वाजि,
चढ़कर आगे बढ़ा महान्् ॥३९॥
जहां गड़ा चेतक–कंकाल,
हुई जहां की भूमि निहाल।
बहीं देव–मन्दिर के पास,
चबूतरा बन गया विशाल ॥४०॥
होता धन–यौवन का हास,
पर है यश का अमर–विहास।
राणा रहा न, वाजि–विलास,
पर उनसे उज्ज्वल इतिहास ॥४१॥
बनकर राणा सदृश महान
सीखें हम होना कुबार्न।
चेतक सम लें वाजि खरीद,
जननी–पद पर हों बलिदान ॥४२॥
आओ खोज निकाले यन्त्र
जिससे रहें न हम परतन्त्र।
फूंके कान–कान में मन्त्र,
बन जायें स्वाधीन–स्वतन्त्र ॥४३॥
हल्दीघाटी–अवनी पर
सड़ती थीं बिखरी लाशें।
होती थी घृणा घृणा को,
बदबू करती थीं लाशें ॥४४॥