हमारा अतीत (भारत–भारती से): मैथिली शरण गुप्त

हमारा अतीत (भारत–भारती से): मैथिली शरण गुप्त

Bharat-Bharati is a classic Maha-Kavya (epic) written by Rashtra Kavi Methili Sharan Gupt. It traces the rise and fall of Indian civilization and gives prescription for regaining the heights that the civilization had once achieved in the past. The book has three chapters on the past, present and future of India. There are 703 verses in all. I have presented here few verses from “Ateet” (past) and shall be presenting other excerpts in future. The sheer beauty of verses in this epic is without a parallel and it must be read and understood by our young readers.

हमारा अतीत (भारत–भारती से): मैथिली शरण गुप्त

शैशव दशा में देश प्रायः जिस समय सब व्याप्त थे,
निःशेष विषयों में तभी हम प्रौढ़ता को प्राप्त थे।
संसार को पहले हमीं ने ज्ञान भिक्षा दान की,
आचार की, व्यापार की, व्यवहार की, विज्ञान की।

‘हाँ’ और ‘ना’ भी अन्य जन करना न जब थे जानते,
थे ईश के आदेश तब हम वेदमंत्र बखानते।
जब थे दिगंबर रूप में वे जंगलों में घूमते,
प्रासाद–केतन–पट हमारे चन्द्र को थे चूमते।

यद्यपि सदा परमार्थ ही में स्वार्थ थे हम मानते,
पर कर्म से फल कामना करना न हम थे जानते।
विख्यात जीवन व्रत हमारा लोकहित एकान्त था
‘आत्मा अमर है, देह नश्वर’ यह अटल सिद्धांत था।

फैला यहीं से ज्ञान का आलोक सब संसार में,
जागी यहीं थी जग रही जो ज्योति अब संसार में।
इंजील और कुरान आदिक थे न तब संसार में,
हमको मिला था दिव्य वैदिक बोध जब संसार में।

जिनकी महत्ता का न कोई पा सका है भेद ही,
संसार में प्राचीन सबसे हैं हमारे वेद ही।
प्रभु ने दिया यह ज्ञान हमको सृष्टि के आरंभ में,
है मूल चित्र पवित्रता का सभ्यता के स्तम्भ में।

विख्यात चारो वेद मानो चार सुख के सार हैं,
चारो दिशाओं में हमारे वे विजय ध्वज चार हैं।
वे ज्ञान गरिमागार हैं, विज्ञान के भंडार हैं,
वे पुण्य–पारावार हैं, आचार के आधार हैं।

जो मृत्यु के उपरांत भी सबके लिए शांतिप्रदा–
है उपनिषद विद्या हमारी एक अनुपम सम्पदा ।
इस लोक को परलोक से करती वही एकत्र हैं,
हम क्या कहें, उसकी प्रतिष्ठा हो रही सर्वत्र है।

है वायुमण्डल में हमारे गीत अब भी गूँजते
निर्झर, नदी, सागर, नगर, गिरि, वन सभी हैं कूजते
देखो हमारा विश्व में कोई नहीं उपमान था
नरदेव थे हम, और भारत देव लोक समान था।

∼ मैथिली शरण गुप्त (राष्ट्र कवि)

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