रामधारी सिंह ‘दिनकर’ भारत में हिन्दी के एक प्रमुख लेखक, कवि व निबन्धकार थे। वे आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं।
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ स्वतन्त्रता पूर्व एक विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतन्त्रता के बाद ‘राष्ट्रकवि’ के नाम से जाने गये। वे छायावादोत्तर कवियों की पहली पीढ़ी के कवि थे। एक ओर उनकी कविताओ में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है तो दूसरी ओर कोमल श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति है। इन्हीं दो प्रवृत्तिय का चरम उत्कर्ष हमें उनकी कुरुक्षेत्र और उर्वशी नामक कृतियों में मिलता है।
Who are the saboteurs of this Nation? Who are responsible for impeding our growth? In this excerpt from the famous book “Parushuram ki Prateeksha”, Ramdhari Singh Dinkar identifies some culprits.
अपराधी कौन: रामधारी सिंह दिनकर
घातक है, जो देवता–सदृश दिखता है
लेकिन कमरे में ग़लत हुक्म लिखता है
जिस पापी को गुण नहीं, गोत्र प्यारा है
समझो उसने ही हमें यहाँ मारा है।
जो सत्य जान कर भी न सत्य कहता है
जो किसी लोभ के विवश मूक रहता है
उस कुटिल राजतंत्री कदर्य को धिक् है
वह मूक सत्यहंता कम नहीं वधिक है।
चोरों के हैं जो हेतु, ठगों के बल हैं
जिनके प्रताप से पलते पाप सकल हैं
जो छल–प्रपंच सब को प्राश्रय देते हैं
या चाटुकार जन से सेवा लेते हैं।
यह पाप उन्हीं का हमको मार गया है
भारत अपने घर में ही हार गया है।
कह दो प्रपंचकारी, कपटी, जाली से
आलसी, अकर्मठ, काहिल, हड़ताली से
सीलें जबान, चुपचाप काम पर जायें
हम यहाँ रक्त, वे घर में स्वेद बहायें
जा कहो पुण्य यदि बढ़ा नहीं शासन में
या आग सुलगती रही प्रजा के मन में
तामस यदि बढ़ता गया ढकेल प्रभा को
निर्बन्ध पन्थ यदि मिला नहीं प्रतिभा को
रिपु नहीं, यही अन्याय हमें मारेगा
अपने घर में ही फिर स्वदेश हारेगा।